بسم الله الرحمن الرحيم
बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम
अल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ जो बड़ा मेहरबान अत्यंत दयालु है
धर्मों की वास्तविकता
और
इस्लाम
लेखक
अब्दुल्लाह अल्काफ़ी अलमुहम्मदी
सहकारी कार्यालय निमंत्रण मार्गदर्शन एवं
समुदाय धार्मिक जागरूकता प्रान्त तैमा (तबूक)
सऊदी अरब
पोस्ट बॉक्स (१९८) पिन कोड (७१९४१)
दूरभाष (+९६६१४४६३१०९५) फैक्स (+९६६१४४६३२४९२)
بسم الله الرحمن الرحيم
बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम
अल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ जो बड़ा मेहरबान अत्यंत दयालु है
الحمد لله رب العالمين، والصلاة والسلام على نبينا محمد خاتم النبيين، وعلى آله وأزواجه وأهل بيته وأصحابه أجمعين، ومن تبعهم بإحسان إلى يوم الدين.
"अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन, वस्सलातो वस्सलामो अला नबीयेना मुहम्मदिन खातेमिन नबीयीन व अला आलेही व अज़्वाजेहि व अहले बैतेही व असहाबेहि आजमईन, व मन तबेअहुम बे एहसानिन एला यौमिद्दीन"
सभी प्रकार की स्तुति व प्रशंशा एकमात्र अल्लाह के लिए, जो निर्माता प्रजापति व पालनहार है संसारों का, और दरूद और शांति हो हमारे पैगंबर मुहम्मद पर, जो पैग़ंबरों के शेष हैं, उन के परिवार उन की पत्नियों उनके घर वालों तथा उन के साथियों पर भी, और उन पर भी जो न्याय के दिन तक धर्मार्थ के साथ इन के मार्ग पर जीवन यापन करते रहे,
प्रस्तावना
हमारे इस युग में कोई भी चीज़ मिलावट से बच न पाई, खाद्य सामग्री, जीवन के मूलभूत प्रयोग सामग्री, वस्त्र, यहां तक की रहन सहन, मिलजुल, हंसना बोलना और सोच बिचार तक पूरी तरह से सुरक्षित नहीं रहे, दुख तो इस बात का है की धर्म भी इस आपदा से अछूत न रह सके,
यहां पर हम उन बिंदुओं की बात नहीं कर रहे, जो पुरातन युग में नहीं थे, और अब धर्म अनुसार उन का निपटारा किया जा रहा है, और न ही आधुनिक टेक्नालॉजी या विकास कार्य के लिए अविष्कार किये गए उचित साधनों व संसाधनों पर हम टिप्पणी कर रहे हैं, धर्म तो विकास कार्यों के लिए मनुष्य को उत्साहित करता है, और ऐसे लोगों की प्रशंसा करता है, अल्लाह ने फ़रमाया:
﴿يَعْمَلُونَ لَهُ مَا يَشَاءُ مِن مَّحَارِيبَ وَتَمَاثِيلَ وَجِفَانٍ كَالْجَوَابِ وَقُدُورٍ رَّاسِيَاتٍ ۚ اعْمَلُوا آلَ دَاوُودَ شُكْرًا ۚ وَقَلِيلٌ مِّنْ عِبَادِيَ الشَّكُورُ﴾ سورة سبا: ١٣
अर्थ: वे उसके लिए बनाते, जो कुछ वह चाहता - बड़े-बड़े भवन, प्रतिमाएँ, बड़े हौज़ जैसे थाल और जमी रहनेवाली देगें - "ऐ दाऊद के लोगों! कर्म करो, कृतज्ञता दिखाने रूप में। मेरे बन्दों में कृतज्ञ थोड़े ही हैं, (सूरह सबा: 13)
इसी प्रकार पवित्र क़ुरआन में जगह जगह आधुनिक संसाधनों के अविष्कार, पर्बतों को खोद कर महल बनाने, लोहे का विभिन्न प्रकार से प्रयोग, विकास कार्य पर ज़ोर, और काम काज पर उत्साहित किया है, पूजा अर्चना और इबादत के बाद मंदिर मस्जिद में बैठे रहने को अच्छा नहीं समझा,
﴿فَإِذَا قُضِيَتِ الصَّلَاةُ فَانتَشِرُوا فِي الْأَرْضِ وَابْتَغُوا مِن فَضْلِ اللَّـهِ وَاذْكُرُوا اللَّـهَ كَثِيرًا لَّعَلَّكُمْ تُفْلِحُونَ﴾ سورة الجمعة: ١٠
अर्थ: फिर जब नमाज़ पूरी हो जाए तो धरती में फैल जाओ और अल्लाह का उदार अनुग्रह (रोजी) तलाश करो, और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करते रहो, ताकि तुम सफल हो (सूरह जुमुअह: 10)
बल्कि हमारी बात इस संसार के निर्माता द्वारा जारी किये गए व्यापी व प्रकृतिक नियमों को बदलने पर है, कहीं खुल के नवीकरण किया जा रहा है, तो कहीं जाने अनजाने में यह कार्य अंजाम पा रहा है, और इसी लिए आकाश पटल ब्रह्माण्ड बल्कि पुरे संसार में संतुलन की कमी स्पष्ट दिखाई दे रही है, अल्लाह ने फ़रमाया:
﴿ظَهَرَ الْفَسَادُ فِي الْبَرِّ وَالْبَحْرِ بِمَا كَسَبَتْ أَيْدِي النَّاسِ لِيُذِيقَهُم بَعْضَ الَّذِي عَمِلُوا لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُونَ﴾ سورة الروم: ٤١
अर्थ: थल और जल में बिगाड़ फैल गया स्वयं लोगों ही के हाथों की कमाई के कारण, ताकि वह उन्हें उनकी कुछ करतूतों का मज़ा चखाए, कदाचित वे बाज़ आ जाएँ, (सूरह अल-रूम: ४१)
इन बातों से यह स्पष्ट हो जाता है, कि धार्मिक नियम क़ानून में मनुष्य द्वारा घटना बढ़ाना, आगे पीछे करना, हेरफेर करना,छुपाना अथवा नवीकरण करना कितना महत्पूर्ण विषय है, और इस का ज्ञान होना कितना अनिवार्य है,
इस पुस्तक को प्रस्तुत करने के कारण
१ - धार्मिक नियमों में किये गए फेर बदल, कमी बेशी, नवीकरण और छिपाना, और इस के कारण लोगों को धर्मों का सठीक ज्ञान न पहुंच पाना,
२ - धार्मिक विषयों में सठीक ज्ञान न होने से कुछ लोगों के मन में धर्मों के प्रति संदेह, घृणा, क्रोध, आपस में लड़ाई झगड़े और भेदभाव का उत्पन्न होना,
३ - धर्मों के रूप रेखा का बदल जाना, विचारधरा का सठीक ज्ञान न होना, सरल विषयों का महत्व और महत्पूर्ण विषयों का सरल रूप धार लेना,
5 - अपने ज्ञान अनुसार बिगड़े धर्म से ऊब कर प्राकृतिक जीवन शैली से ही दूर हो जाना, और दुनिया के बनाये गए नियमों का उस की जगह न ले पाने से अराजकता की इस्थिति उतपन्न होना,
6 - धर्मों को अपने पूर्वजों के ज्ञान के आधार पर न ले कर धर्म के नाम पर नए नए नियम और उल्लेख्य अविष्कार करना, पूर्वजों के ज्ञान को नज़रअंदाज़ कर के अपने ग़लत व्याख्याओं को सहीह धर्म की जगह दे देना,
इस पुस्तक को प्रस्तुत करने के उद्देश्य
१ - इंसान को जो कुछ वह धार्मिक ज्ञान प्राप्त करता है, अल्लाह ने हर वर्ग को उस की क्षमता अनुसार दूसरों तक पहुंचा देने का आदेश दिया है, इस लिए मेरा कर्तव्य है की जो कुछ मुझे ज्ञान है, वह आप तक पहुंचा कर इस शुभ कार्य का पुण्य प्राप्त कर सकूं,
२ - धार्मिक उन्माद के इस काल में बहुत से कारण हैं, जिस से कुछ लोग धर्मों से घुटन अथवा घृणा महसूस कर रहे हैं, ऐसे में मेरी प्रयास होगी की लोगों के संदेह को दूर करूँ, और धार्मिक वास्तविकता से उन को रूबरू कराऊँ, अगर धर्मों को स्वीकार न भी करें, तो धर्मों के प्रति कम से कम उन की नफरत या ग़लत फहमी दूर हो जाये,
३ - वह सच्चा धर्म हो ही नहीं सकता, जो आपसी सौहार्द को बिगड़े, भाई चारे को मिटाये, लोगों को आपस में लड़ाये, नफरत क्रूरता झूट और मानवता के विपरीत कार्य अथवा कल्पनाओं और विचारधारा को बढ़ावा दे, मेरा प्रयास इन सब के खिलाफ प्रेम सद्भाव और मानवता के कल्याण के लिए सच्चे धर्म की भूमिका को उजागर करना है,
4 - इस्लामिक विचारधारा उस की वास्तविकता और विशेषताओं को एक अत्यंत लाभदायक व्यापार प्रस्ताव के रूप में पेश करना, यदि किसी को भा जाये, और वह इस को स्वीकार कर लेता है, तो उस के साथ साथ मेरे लिए भी सौभाग्य होगा,
अनुसंधान क्रियाविधि जिन का ध्यान रखा गया है
1 - मैं ने सरल भाषा का प्रयोग किया है, ताकि साधारण आदमी को भी समझने में कोई दिक़्क़त न हो, पाठक इस को आसानी से समझ कर सठीक परिणाम निकाल सकता है,
2 - अपनी हर बात को उस के स्रोत से जोड़ने और प्रमाणों का संकल्पनिक व सरल अनुवाद करने का भी ध्यान रखा है, ताकि प्रमाणों को समझने में भी सहायता मिल सके,
3 - जगह जगह लॉजिक और उदाहरणों से अपनी बातों को स्पष्ट करने की भी कोशिश की है, यह केवल समझने के लिए है,प्रमाण के रूप में नहीं,
4 - इस पुरे पुस्तक को प्रश्न उत्तर के रूप में प्रस्तुत किया है, ताकि किसी पाठक के मन में उतपन्न होने वाले संदेह का सीधा उत्तर मिल जाये, और उस को संतुस्ट कर सके,
अपेक्षा और प्रार्थना
जिन कारणों से मैंने इस महत्वपूर्ण विषय पर लिखने का साहस किया है, मुझे आशा है की लोगों को सही बात को समझने का अवसर मिलेगा, विशेष रूप से इस्लाम के प्रति पाई जाने वाली उन्माद में अल्लाह ने चाहा तो कमी आएगी, इस्लाम एक अत्यंत सुंदर धर्म है, इस की असलियत जानने के बाद बुद्धिजीवियों, ज्ञानियों, और विद्वानों समेत बहुत से लोगों ने इस को गले लगाया,और दुनिया व आख़िरत में भाग्यशाली बने, मुझे आशा है इस लेख से बहुत से लोगों को सही दिशा प्राप्त होगी, अगर कोई इस्लाम को न भी अपनाये, तो कम से कम उस के मन से इस्लाम के प्रति सद्भाव और प्रेम की जोत जलेगी, भाईचारा को बढ़ावा मिलेगा, मानवता प्रेम सद्भाव और एक दूसरे को समझने उस की मान्यताओं और धर्म की क़द्र करने का एक अच्छा वातावरण बनेगा,
संसार के निर्माता, मालिक, और प्रजापति से मेरी प्रार्थना है, की वह इस लेख को मानवता के लिए कल्याणकारी बनाये, सही और सच्ची बात को समझने और उसे अपनाने की योग्यता प्रदान करे, ग़लत को ग़लत समझ कर उस को नकारने की साहस दे, एवं लोगों में जागरूकता लाने में सब को भागीदार बनाये,
पाठकों से क्षमा याचना और अनुरोध
मैं कोई बहुत बड़ा इस्लामिक विद्वान या धार्मिक ज्ञानी व बुद्धिजीवी नहीं हूँ, मैं तो एक मात्र इस्लाम धर्म विद्दार्थी हूँ, इंसान होने के नाते मुझ से भूल चूक असंभव नहीं है, अगर किसी भाई को इस पुस्तक में कुछ सत्यता के विपरीत मिले, तो मेरी सुधार करने का कष्ट करें, युग युग आप का आभारी रहूंगा,
इस किताब में जो सत्य और सही है, वह केवल एक अल्लाह की ओर से है, और अगर इस में कुछ भूल त्रुटि एवं ग़लती है, तो वह मेरे और शैतान ए रजीम की ओर से है, मैं अल्लाह से क्षमा चाहता हूँ, वह क्षमा प्रदान करने वाला बड़ा दयालु है, और वह सुनने वाला निकटतम और फरियादियों की प्रार्थनाओं को ग्रहण करने वाला है,
लेखक
अब्दुल्लाह अल्काफ़ी अलमुहम्मदी
धार्मिक शिक्षा व आमंत्रण गैर अरब समुदाय विभाग
सहकारी कार्यालय धार्मिक शिक्षा व मार्गदर्शन
प्रान्त तैमा, क्षेत्र तबूक, सऊदी अरब
दिनांक: ०१/ ०४/ १४३९ ह. दिन: बृहस्पतिवार
मुताबिक: १९/ १२/ २०१७ ई.
बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम
प्रश्न : आप अपनी बात मुझे क्यों सुनना चाहते हैं?
यह मेरा आप के और सभी मनुष्य के प्रति प्रेम भावना है, मेरा मन्ना है की मैं जिस विचारधारा अनुसार चल रहा हूँ, मैं जो कार्य कर रहा हूँ, यह अत्यंत लाभ दायक है, इसी लिए मैं इस पर चल रहा हूँ, और इस रस्ते से प्रेम भी करता हूँ, हमारे आखरी पैग़ंबर मुहम्मद (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) ने फ़रमाया है:
عن أبي حمزة أنس بن مالكٍ رضي الله عنه خادم رسول الله صلى الله عليه وسلم، عن النبي صلى الله عليه وسلم قال: "لا يؤمن أحدكم حتى يحب لأخيه ما يحب لنفسه" رواه البخاري ومسلم.
अर्थ: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सेवक हज़रत अबू हमज़ह अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु (अल्लाह इन से प्रसन्न हो) पैग़ंबर (नबी) से रिवायत करते हैं, कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) ने फ़रमाया: "तुम में से कोई भी उस समय तक मोमिन (धर्मी) नहीं हो सकता, जब तक दूसरों के लिए भी वही न पसंद करने लगे, जो सोयम अपने लिए पसंद करता है" (इस को बुखारी व मुस्लिम ने रिवायत किया है)
जिस पथ पर मैं चल रहा हूँ, इस की वास्तविकता को जानने के बाद मैं ने अपने लिए इस को पसंद किया, और आप मेरे भाई हैं,इस लिए की हम सभी बाबा आदम अलैहिस सलाम की औलाद से हैं, इस प्रकार हम सभी आपस में भाई भाई हैं, अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में फ़रमाया:
﴿يَا أَيُّهَا النَّاسُ اتَّقُوا رَبَّكُمُ الَّذِي خَلَقَكُم مِّن نَّفْسٍ وَاحِدَةٍوَخَلَقَ مِنْهَا زَوْجَهَا وَبَثَّ مِنْهُمَا رِجَالًا كَثِيرًا وَنِسَاءً وَاتَّقُوا اللَّـهَ الَّذِي تَسَاءَلُونَ بِهِ وَالْأَرْحَامَ إِنَّ اللَّـهَ كَانَ عَلَيْكُمْ رَقِيبًا﴾ سورة النساء: ١
अर्थ: ऐ लोगों! अपने रब का डर रखों, जिसने तुमको एक जीव से पैदा किया और उसी जाति का उसके लिए जोड़ा पैदा किया और उन दोनों से बहुत-से पुरुष और स्त्रियाँ फैला दी। अल्लाह का डर रखो, जिसका वास्ता देकर तुम एक-दूसरे के सामने माँगें रखते हो। और नाते-रिश्तों का भी तुम्हें ख़याल रखना हैं। निश्चय ही अल्लाह तुम्हारी निगरानी कर रहा हैं, (सूरह अल-निसा: १)
عن أبي نضرة حدثني من سمع خطبة رسول الله صلى الله عليه وسلم في وسط أيام التشريق فقال: "يا أيها الناس ألا إن ربكم واحد وإن أباكم واحد ألا لا فضل لعربي على أعجمي ولا لعجمي على عربي ولا لأحمر على أسود ولا أسود على أحمر إلا بالتقوى" مسند أحمد وصححه الألباني في السلسلة الصحيحة 6/ 199.
अर्थ: हज़रत अबू नज़रह से रिवायत है, कि यह हदीस मुझे उस ने सुनाई, जिस ने तशरीक़ के दिनों (ज़िल्हज्जह इस्लामी साल का १२ वां महीना है, इस में तीन दिनों को तशरीक़ के दिन कहते हैं: ११. १२ और १३) के बीच रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) के ख़ुत्बाह (उपदेश) को सुना, की रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया:
"लोगो ! सूचित रहो कि निसंदेह तुम्हारा रब (निर्माता, प्रजापति, मालिक व पालनहार) मात्र एक है, और तुम्हारा बाप (बबआदम इन पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) एक है, सूचित रहो की किसी अरबी को किसी आजमी (ग़ैर अर्ब) पर, अथवा किसी आजमी को किसी अरबी पर कोई फ़ज़ीलत (बड़ाई अथवा बढ़ोतरी) है, न किसी गोरे वयक्ति को काले पर और न काले को गोरे पर, परन्तु (अगर है तो उस की) भक्ति अनुसार है", (इस को मुसनद अहमद में ज़िक्र किया गया है, और शैख़ अल्बानी ने सिलसिलह सहिहाह ६/ १९९ में इस को प्रमाणित और सहीह कहा है)
अर्थात: हम सभी मनुष्य हज़रत आदम अलैहिस सलाम की संतान हैं, इस के अनुसार हम आप और सभी लोग एक पिता की संतान और आपस में भाई हुए, तो जब मेरे पास कोई कल्याणकारी कार्यसूची है, जिसे मैं अपने लिए पसंद करता हूँ, तो भला मैं अपने भाईओं यानि के आप को और सभी मनुष्य को उस से सूचित क्यों न करूँ?! अवश्य जहाँ तक मेरे लिए संभव हो, मुझे सभों तक इस कार्यसूची को पहुंचना चाहिए, यही भाई चारा और प्रेम भवा का कर्तव्य है,
प्रश्न : हम आप की बात सुन्ना ही नहीं चाहते, क्या आप हमारा पीछा छोड़ देंगे?
न तो हम आप पर कोई दबाव डालेंगे, न आप को मजबूर करेंगे, परन्तु हमें आप से प्रेम और दया है, क्यों कि आप हमारे भाई हैं,इस लिए हम आप का पीछा नहीं छोड़ेंगे, हम आप को बताते रहेंगे, जब तक आप समझ न लें, फिर जब आप हमारी बात समझ लेंगे, तो हम आप को छोड़ देंगे, मानना न मानना यह आप का अपना ह्रदय और अंतरात्मा से लिया गया निर्णय होना चाहिए,
एक उदाहरण:
हमारा कोई छोटा बाल शिशु नन्हा बालक आग की अंगूठी को नहीं समझता है की वह क्या है, लाल लाल सुंदर फूल जैसा देख वह उस को पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ता है, ऐसे समय उस को रोकना हमारा कर्तव्य है, हमारे समझने पर भी वह नहीं समझता है, क्यों की वह बच्चा है, इसी लिए हम उस को रोने चिल्लाने पर भी अग्नि को हाथ लगाने नहीं देते,
परन्तु जो बड़े हैं, उन को समझा देने के बाद मजबूर नहीं किया जा सकता, याद रहे की हमारी यह पेशकश और प्रस्ताव आप के लिए ऐसा ही है, हम आप के निकट दुनिया और आख़िरत में कल्याण का प्रस्ताव रख रहे हैं, जब की हम आप को पथभ्र्स्टी और बेधर्मी के कारण जहन्नम और नर्क की ओर बढ़ते हुए देख रहे हैं,
प्रश्न : मेरे पास ज्ञान है, और मैं अपना अच्छा बुरा समझता हूँ, क्या आप मुझे मजबूर करेंगे?
कदापि नहीं, यदि हम ने आप को मजबूर किया, तो हम पाप के भागीदार बन जायेंगे, क्यों की यह अल्लाह के नियम कानून का खुला उल्लंघन होगा, अल्लाह ने कहा है:
﴿لَا إِكْرَاهَ فِي الدِّينِ قَد تَّبَيَّنَ الرُّشْدُ مِنَ الْغَيِّ فَمَن يَكْفُرْ بِالطَّاغُوتِ وَيُؤْمِن بِاللَّـهِ فَقَدِ اسْتَمْسَكَ بِالْعُرْوَةِ الْوُثْقَىٰ لَا انفِصَامَ لَهَا وَاللَّـهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ﴾ سورة البقرة: ٢٥٦
अर्थ: धर्म के विषय में कोई ज़बरदस्ती नहीं। सही बात नासमझी की बात से अलग होकर स्पष्ट हो गई है। तो अब जो कोई बढ़े हुए सरकश को ठुकरा दे और अल्लाह पर ईमान लाए, उसने ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटनेवाला नहीं। अल्लाह सब कुछ सुनने, जाननेवाला है, (सुरह अल-बक़रह: 256)
और एक जगह फ़रमाया:
﴿لَكُمْ دِينُكُمْ وَلِيَ دِينِ﴾ سورة الكافرون: 6
अर्थ: तुम्हारे लिए तूम्हारा धर्म है और मेरे लिए मेरा धर्म, (सूरह अल-काफ़िरून: ६)
इसलिए हम आपको मजबूर नहीं कर सकते, जब आप हमारी बात सुन लेंगे, और हमारे प्रस्ताव को समझ लेंगे, तो हमारे कार्य का अंत हो गया, उस से पहले अल्लाह ने आप को समझने की जिम्मेदारी हमें सौंपी है, यदि हम ने आप को समझना छोड़ दिया,तो वह हम से इस कोताही का हिसाब मांगेगा, हाँ जब आप समझ लेंगे, तो वह सोयं हमें आप को छोड़ देने का आदेश देता है:
﴿وَإِنْ أَحَدٌ مِّنَ الْمُشْرِكِينَ اسْتَجَارَكَ فَأَجِرْهُ حَتَّىٰ يَسْمَعَ كَلَامَ اللَّـهِ ثُمَّ أَبْلِغْهُ مَأْمَنَهُ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمْ قَوْمٌ لَّا يَعْلَمُونَ﴾ سورة التوبة: ٦
अर्थ: और यदि मुशरिकों में से कोई तुमसे शरण माँगे, तो तुम उसे शरण दे दो, यहाँ तक कि वह अल्लाह की वाणी सुन ले। फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दो, क्योंकि वे ऐसे लोग हैं, जिन्हें ज्ञान नहीं, (सूरह अल-तौबह: ६)
प्रश्न : हमें आप के प्रस्ताव सुनने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर : संसार में बहुत से जिव जंतु हैं, जो एक दूसरे की नहीं सुनते, मानव जाती एक दूसरे के लिए दर्पण और आइना है, अपनी कमी को दूसरे के अंदर देख कर अपनी सुधार करता है, मानवता यह है की एक दूसरे की बात सुनी जाये, अगर अच्छी लगे तो उसे अपना लें, और ग़लत हुई तो सामने वाले की सुधार करें, नहीं तो हम में और दूसरे जिव में अंतर् क्या रह जायेगा?
हम आपस में मिल कर कोई बात करेंगे, प्रश्न उत्तर करेंगे, तो हो सकता है अंत में किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचें, जो मानवता के लिए कल्याणकारी हो, अगर वह हमारे काम न भी आ सके तो हमारे बाद आने वालों को उस का लाभ मिलेगा, यह इस्लाम का एक महत्वपूर्ण नियम है
عن ابن عمر رضي الله عنهما أن رسول الله صلى الله عليه وسلم قال: "خير الناس أنفعهم للناس" رواه الطبراني وصححه الألباني في السلسلة الصحيحة برقم: (906(
अर्थ: हज़रत अब्दुल्लाह इब्न उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा (अल्लाह इन से प्रसन्न हो) से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) ने फ़रमाया: लोगों में सर्वश्रेष्ठ वह है जो लोगों के लिए लाभ दायक है, (इस हदीस को इमाम तबरानी ने अलमोजम में बयान किया है, और शैख़ अल्बानी र.अ. ने सिल्सिलह सहीहह के ९०६ नो में सहीह कहा है)
इसका अर्थ यह हुआ कि लोगों को जो जितना अधिक लाभ पहुंचने वाला है, वह लोगों में उतना ही सर्वश्रेष्ठ है,
प्रश्न : हमारे बाद जो आएगा, वह अपने कल्याण के बारे खुद सोचेगा, हम उस के लिए अपना समय क्यों नष्ट करें?
उत्तर : यह तो ग़ैर ज़िम्मेदाराना बात है, अगर हम से पहले लोग ऐसा ही सोच कर चुप बैठ जाते, तो आज हम बिजली के बिना अँधेरे में होते, हवाई जहाज़ और रेल यात्रा की जगह गधे पर बैठ के यात्रा कर रहे होते, आज दुनिया में जो कुछ भी है, किसी का योगदान है, अगर आप इन सब से लाभ उठाना चाहते हैं, तो आप का कर्तव्य बनता है, की आप भी अपने बाद आने वालों को कुछ दे कर इस दुनिया के विकास में भागीदार बनें, अन्यथा दुनिया की इन सुविधाओं से लाभ उठाने का आप को कोई हक़ नहीं है, कम से कम आप किसी को अच्छी बात बता सकते हैं, किसी को बुराई से रोक सकते हैं, इस्लामी दृष्टि से देखें तो अल्लाह ने कुअरान में बयान क्या की :
﴿وَالْعَصْرِ* إِنَّ الْإِنسَانَ لَفِي خُسْرٍ * إِلَّا الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ وَتَوَاصَوْا بِالْحَقِّ وَتَوَاصَوْا بِالصَّبْرِ﴾ سورة العصر
अर्थ: असर के समय की कसम है, कि वास्तव में मनुष्य घाटे में है, सिवाय उन लोगों के जो ईमान लाए और अच्छे कर्म किए और एक-दूसरे को हक़ की ताकीद की, और एक-दूसरे को धैर्य की ताकीद की, (सूरह अल-असर)
बल्कि सांसरिस में उम्मत का कर्तव्य ही इसी को बताया :
﴿كُنتُمْ خَيْرَ أُمَّةٍ أُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ تَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَتَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَرِ﴾ سورة آل عمران: 110
अर्थ: तुम एक उत्तम समुदाय हो, जो लोगों के समक्ष लाया गया है। तुम नेकी का हुक्म देते हो और बुराई से रोकते हो, (सुरह आल इमरान: 110)
प्रश्न : हम इतने महान ज्ञानी नहीं हैं की दुनिया को ऐसा कुछ दे सकें, यह सब ज्ञानी लोगों पर क्यों न छोड़ दें?
उत्तर : हम से पूर्व यदि लोग ऐसा ही सोचते, तो आज यह सब कुछ भी न होता, केवल बड़े बड़े आविष्कार करना ही अच्छा कार्य है, ऐसा नहीं है, बल्कि दूसरों को अपनी अच्छी बात से आनंदित कर देना भी नेकी का कार्य है,
عن عدي بن حاتم رضي الله عنه أن النبي صلى الله عليه وسلم قال: "اتقوا النار ولو بشق تمرة، لم يجد فبكلمة طيبة" رواه البخاري ومسلم
अर्थ: हज़रत अदी बिन हातिम रज़ियल्लाहु अन्हुमा (अल्लाह इन से प्रसन्न हो) से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) ने फ़रमाया: नरक से बचने का प्रबंध करो, खजूर के एक टुकड़े (दान) के माध्यम से ही क्यों न हो, यदि किसी व्यक्ति को यह भी प्राप्त न हो, तो एक अच्छी बात के माध्यम से ही सही, (इस को बुखारी व मुस्लिम ने रिवायत किया है)
इस योगदान में भागीदार बनने के लिए हवाई जहाज़ अविष्कार करना ही ज़रूरी नहीं है, हर आदमी अपने ज्ञान से जो कुछ भी दे सकता है, वही उस के लिए श्रेष्ठ है, अगर कुछ नहीं तो अच्छी बात अच्छा सुझाव भी दे कर भागीदार बन सकता है, इतना तो हम कर ही सकते हैं
संसार में जो भी अच्छा कार्य होगा, उस अच्छाई से आप भी लाभ उठाते हैं, और जो भी ग़लत होता है, उस की हानि आप को भी होती है, इस लिए सच्चाई और अच्छाई का साथ देना आप का कर्तव्य है, और ग़लत बुराई पाप अन्याय को जानने के बाद इन का विरोध कीजिये, और लोगों को भी उस से रोकिये, सच्चाई का साथ और अन्याय का विरोध कर आप इतना लाभ तो लोगों को पोहंचा सकते हैं, यह भी लोगों के कल्याण का ही एक भाग है, नहीं तो संसार में जो भी अन्याय के चलते बुराई फैलेगी, उस में आप को भी लिप्त होना पड़ेगा,
عن النعمان بن بشير رضي الله عنه قال: قال رسول الله صلى الله عليه وسلم: "مَثَلُ القَائِم في حُدُودِ اللَّه والْوَاقِع فيها، كَمثل قَومٍ اسْتَهَموا على سَفِينَةٍ، فَأَصابَ بَعْضُهم أعْلاهَا، وبعضُهم أَسْفلَهَا، فكان الذي في أَسفلها إذا استَقَوْا من الماء مَرُّوا على مَنْ فَوقَهمْ، فقالوا: لو أنا خَرَقْنا في نَصِيبِنَا خَرقا ولَمْ نُؤذِ مَنْ فَوقَنا؟ فإن تَرَكُوهُمْ وما أَرَادوا هَلَكوا وهلكوا جَميعا، وإنْ أخذُوا على أيديِهِمْ نَجَوْا ونَجَوْا جَميعا" رواه البخاري
अर्थ: हजरत नो'मान बिन बशीर (अल्लाह इन से प्रसन्न हो) से रवायत है की अल्लाह के रसूल (आप पर अल्लाह का दरूद व सलाम हो) ने फ़रमाया : "जो अल्लाह की सीमाओं का पालन करने वाला है, और जो उन को लांघता है, उस काफिला की तरह हैं, जो नाव पर यात्रा के लिए लॉटरी निकालें, कुछ लोगों का ऊपर और कुछ का निचे नंबर आया, तो निचे वालों को जब पानी की ज़रूरत पड़ती तो वह ऊपर वालों के सामने से पानी ले कर गुज़रते, फिर उन्हों ने सोचा की हम बार बार ऊपर वालों को तकलीफ देते हैं, इस लिए अब निचे ही से नाव को छेद कर के यहीं से पानी निकाल लें तो अच्छा होगा, तो अगर ऊपर वाले यह सोच कर चुप रहें, की यह निचे वालों का मसला है, वह समझें, तो अवश्य निचे वालों के साथ ऊपर वालों को भी डूबना पड़ेगा,और अगर ऊपर वालों ने निचे वालों को नाव को छेद करने से रोका, तो खुद भी बच जायेंगे, और निचे वाले भी बच जायेंगे"… इस को इमाम बुखारी ने बयान किया है
प्रश्न : धर्मों के बीच बल्कि धर्म का अंदर भी बहुत से मतभेद हैं, फिर इन बातों का क्या लाभ है?
उत्तर : अगर केवल मतभेद के डर से बचना चाहते हैं, तो संसार में कोन सी चीज़ है जिस में लोगों का मतभेद नहीं है, मृत्यु जो इस दुनिया की एक सच्चाई है, इस पर भी लोगों के मतभेद हैं, किस किस चीज़ से भागेंगे?! मतभेद को नज़र चुराने या भागने से नहीं, आपसी बातचीत और सहीह व ग़लत को पहचानने के लिए बुद्धि के प्रयोग से दूर किया जा सकता है,
रहा धर्म के अंदर का मतभेद, तो सच्चे धर्म के अंदर कोई मतभेद नहीं हो सकता, यही पहचान है धर्म के सच्चे या मिथ्य होने के,अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में फ़रमाया:
﴿أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ الْقُرْآنَ ۚ وَلَوْ كَانَ مِنْ عِندِ غَيْرِ اللَّـهِ لَوَجَدُوا فِيهِ اخْتِلَافًا كَثِيرًا﴾ سورة النساء: ٨٢
अर्थ: क्या वे क़ुरआन में सोच-विचार नहीं करते? यदि यह अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की ओर से होता, तो निश्चय ही वे इसमें बहुत-सी बेमेल बातें (अंतर) पाते, (सूरह अल-निसा: ८२)
अर्थात: इस्लाम में मतभेद होने के जो संदेह उतपन्न किये गए हैं, वह सिरे से निराधार हैं, और उन संदेहों को दूर किया गया है,
हाँ बाद में धर्म के कुछ ठीकेदारों ने उस में मतभेद किया है, इस का कारण किसी की ज्ञान की कमी, किसी को कोई लाभ अथवा समझ का अन्तर इत्त्यादि रहा होगा, परन्तु हमें मतभेद से पहले के धार्मिक दस्तावेज़ पर निर्भर करना होगा, जो उन्ही के उल्लेख्य और समझ अनुसार प्रमाणित रूप से हम तक पहुंचा है, पवित्र क़ुरआन में अल्लाह ने बताया है की:
﴿فَإِنْ آمَنُوا بِمِثْلِ مَا آمَنتُم بِهِ فَقَدِ اهْتَدَوا﴾ سورة البقرة: 137
अर्थ: फिर यदि वे उसी तरह ईमान लाएँ जिस तरह तुम ईमान लाए हो, तो उन्होंने मार्ग पा लिया। (सूरह अल-बक़रह: 137)
अर्थात जिस प्रकार आप का ईमान है, अगर आप के बाद वाले लोग ठीक उसी प्रकार का ईमान लाते हैं, कोई कमी बेशी या मिलावट नहीं करते, तो ही उन का ईमान स्वीकार्य होगा,
عن العرباض بن سارية رضي الله عنه قال: قال رسول الله صلى الله عليه وسلم: "... أوصيكم بتقوى الله والسمع والطاعة وإن عبد حبشي فإنه من يعش منكم يرى اختلافا كثيرا وإياكم ومحدثات الأمور فإنها ضلالة فمن أدرك ذلك منكم فعليه بسنتي وسنة الخلفاء الراشدين المهديين عضوا عليها بالنواجد" (رواه الترمذي)
अर्थ: हज़रत अरबाज़ बिन सारियह (अल्लाह आप से प्रसन्न हो) से से रिवायत है की रसूलुल्लाह (आप पर अल्लाह का दरूद व सलाम हो) ने फ़रमाया: … मैं तुम को अल्लाह से डरने का सलाह देता हूँ, और आज्ञाकारी व वफादारी का, चाहे वह खलीफा (राजा) कोई हब्शी ग़ुलाम ही क्यों न हो, इस लिए की तुम में से जो मेरे बाद जियेगा, वह बहुत ज़्यादा मतभेद देखेगा, और धर्म में नई चीज़ों (बिदअत) से सावधान रहना, इस लिए की यह पथभ्र्स्टी है, तो जो लोग ऐसी इस्थिति को पायें, उन पर मेरी और मेरे हिदायत प्राप्त ख़ोलफाये राशेदीन की सुन्नत अनिवार्य है, اहमारी इस सुन्नत (तरीक़ा) को दांतों से चिबा कर लजबूती से थामे रो, (इस को इमाम तिर्मिज़ी ने बयान किया है, और यह हदीस सहीह है)
इमाम मालिक (इन पर अल्लाह की रहमत हो) कहते हैं:
لن يصلح آخر هذه الأمة إلا بما صلح به أولها (اقتضاء الصراط المستقيم لابن تيمية 2/ 763)
अर्थ: बाद में आने वालों को साठीक दिशा और सुधार केवल एक ही माध्यम दे सकता है, और यह वही है, जिस से इन के पूर्वजों को दिशा और उद्धार मिला था, अर्थात क़ुरआन व हदीस पर चलना ही एकमात्र उद्धार का रास्ता है,
अल्लाह ने इंसान को ज्ञान व बुद्धि दी है, तो सहीह और ग़लत को पहचानने में उस का प्रयोग किया जाये, तो मतभेद समाप्त हो सकते हैं, और कोई भी बात करने के लिए क़ायदा क़ानून होता है, बिना नियम के किसी नतीजे तक पहुंचना असंभव है, यदि हमारी बात में अंतर आ जाये, तो आखरी नतीजा उसी क़ानून के अनुसार निकाला जाये, ताकि हमारा मतभेद दूर हो जाये, और हम उस एक विचार पर संतुष्टि के साथ सहमत हो जाएँ,
प्रश्न : नियम क़ानून बनाने में भी तो हमारा मतभेद हो सकता है?
उत्तर : कोई नया नियम क़ानून बनाने से अच्छा है की हम धर्म अनुसार बात करें, जो धर्म हमारे पूर्वजों ने हम तक पहुंचाया है,वह बड़े ज्ञानी थे, उन्हों ने जो नियम बताये हैं, वह बहुत सठीक हैं, उस में मतभेद भी नहीं है,
प्रश्न : धर्म की क्या आवष्यकता है?
उत्तर : धर्म असल में इस संसार के निर्माता पर विश्वास एवं उस के प्रति श्रद्धा का नाम है, यह तो अन्याय है की हम आधुनिक अविष्कार करने वालों को जानें, उन से प्रेम करें, उन के प्रति हमारे ह्रदय में जगह हो, परन्तु इस संसार के निर्माता एवं प्रजापति व संचालक को जानना भी न चाहें, उस से परिचित भी न हों, न हमारे ह्रदय में उस के प्रति कोई श्रद्धा हो, यह बात उस निर्माता को हम से क्रोधित कर सकती है, क्यों की यही तो विद्रोह करना है, जिस को अल्लाह ने "कुफ्र" कहा है, जो की क़ुरआन अनुसार एक दंडनीयअपराध है,
﴿وَمَن يَكْفُرْ بِالْإِيمَانِ فَقَدْ حَبِطَ عَمَلُهُ وَهُوَ فِي الْآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ﴾ سورة المائدة: 5
अर्थ: और जिस किसी ने ईमान (विश्वास और श्रद्धा) से इनकार किया, उसका सारा किया-धरा अकारथ गया और वह आख़िरत में भी घाटे में रहेगा, (सूरह अल-माइदह: ५)
﴿وَمَن يَكْفُرْ بِاللَّـهِ وَمَلَائِكَتِهِ وَكُتُبِهِ وَرُسُلِهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلَالًا بَعِيدًا﴾ سورة النساء: 136
अर्थ: और जिस किसी ने भी अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों और अन्तिम दिन का इनकार किया, तो वह भटककर बहुत दूर जा पड़ा, (सूरह अल-निसा: 136)
इस दुनिया में बिना क़ानून के सुख चैन के साथ जीवन बिताना संभव नहीं है, जिस की लाठी उस की भैंस होगी, अराजकता का माहौल होगा, कब किस के साथ क्या घटना घट जाये, कोई कह नहीं सकता, धनमान और बलवान राज करेगा, और अपने निचे वालों को बंदी बना लेगा, न्याय दया मानवता सब समाप्त हो जायेगा, पाप और पुण्य में कोई अंतर नहीं रह जायेगा, न कोई ग़लत अथवा अन्याय करने से डरेगा, न किसी पीड़ित को कोई सहयोग सहायता और न्याय मिलेगा, दुनिया में जंगल राज होगा, जिस का ख़मयाज़ा हम सब को भुगतना होगा, इस लिए क़ानून की आवष्यकता सब को है, और उस क़ानून का पालन करना उस की गरिमा को बनाये रखना सब की उत्तर दाइत्व है, ताकि धनवान का धन, गरीब का अभिमान, हर एक का अधिकार एवं सम्मान इत्यादि सुरक्षित रहे,
﴿وَلَوْ أَنَّ أَهْلَ الْقُرَىٰ آمَنُوا وَاتَّقَوْا لَفَتَحْنَا عَلَيْهِم بَرَكَاتٍ مِّنَ السَّمَاءِ وَالْأَرْضِ وَلَـٰكِن كَذَّبُوا فَأَخَذْنَاهُم بِمَا كَانُوا يَكْسِبُونَ﴾ سورة الأعراف: 96
अर्थ: यदि बस्तियों के लोग ईमान लाते और डर रखते तो अवश्य ही हम उनपर आकाश और धरती की बरकतें खोल देते, परन्तु उन्होंने तो झुठलाया। तो जो कुछ कमाई वे करते थे, उसके बदले में हमने उन्हें पकड़ लिया, (सूरह अल-आ'राफ: 96)
अर्थात आकाश पाताल धरती ब्रह्माण्ड और यह संसार सब कुछ उसी एक अल्लाह का है, और वह अपनी जागीर अपने वफादारों और आज्ञाकारों को देता है, अपने विद्रोहों को नहीं,
﴿مَن كَفَرَ فَعَلَيْهِ كُفْرُهُ ۖ وَمَنْ عَمِلَ صَالِحًا فَلِأَنفُسِهِمْ يَمْهَدُونَ﴾ سورة الروم: 44
अर्थ: जिस किसी ने इनकार किया तो उसका इनकार उसी के लिए घातक सिद्ध होगा, और जिन लोगों ने अच्छा कर्म किया वे अपने ही लिए आराम का साधन जुटा रहे है, (सूरह आल-रूम: 44)
मृत्यु के बाद नरक से बचने और स्वर्ग में अधिकार पाने का एकमात्र रास्ता भी धर्म ही है, दूसरी दुनिया में किसी भी पुण्य और अच्छे कार्य का बदला तब मिलेगा, जब वह कार्य धर्म के अंतरगत रह कर अंजाम दिया गया हो, धर्म परमात्मा का संविधान है, जो उस संविधान को नहीं मानता, वह बाग़ी है, और बगावत करने वाले के अच्छे कार्य होने के बाद भी उसे दण्डित होना पड़ता है,ऐसे में उस के अच्छे कार्य नहीं देखे जाते, वह राष्ट्र द्रोह ही माना जाता है,
عن عائشة رضي الله عنها قالت: يا رسول الله، إن ابن جدعان كان في الجاهلية يصل الرحم ويطعم المسكين فهل ذاك نافعه؟ قال: "لا ينفعه إنه لم يقل يوماً رب اغفر لي خطيئتي يوم الدين" رواه مسلم
अर्थ: हज़रत आयशह (अल्लाह इन से प्रसन्न हो) से रिवायत है की उन्हों ने कहा : या रसूलुल्लाह (आप पर अल्लाह का दरूद व स्लैम हो) ! इब्न जद'आन जाहेलियत (अधर्मी) काल में रिश्तेदारी निभाता था, ग़रीबों को खाना खिलता था, तो क्या (उस का) यह कार्य उस को (दूसरी दुनिया में) लाभ देगा? आप ने फ़रमाया : लाभ नहीं देगा, उस ने एक दिन भी यह नहीं कहा की ऐ परवरदिगार मेरे पापों को क़यामत के दिन क्षमा कर देना, (इस को इमाम मुस्लिम ने रवायत किया है) अर्थात परमात्मा या धर्मों पर उस का विश्वास नहीं था,
प्रश्न : देश का क़ानून और संविधान होते हुए भी धार्मिक क़ानून की क्या आवष्यकता है?
उत्तर : देश का क़ानून सिर्फ इस संसार की राजनीती पर आधारित होता है, जब की धार्मिक दस्तावेज़ के हिसाब से राजनीती धर्म का सिर्फ एक पाठ है, धर्म में जीवन के किसी भी भाग को छोड़ा नहीं जाता, हर प्रकार से मानव को मार्गदर्शित क्या जाता है,जिस से उस का कल्याण संभव हो, राजनीति में जहाँ तक क़ानून की नज़र होगी, वहीँ तक आदमी उस का पालन करेगा, रात के अँधेरे में, या एकांत में वह किसी क़ानून की परवाह नहीं करेगा, जब की धर्म में उसे हर जगह हर समय अपने परवरदिगार व पालनहार से डरता रहेगा, और वह कोई ग़लती करने से बचता रहेगा,
प्रश्न : क्या देश और धर्म के क़ानून का एक साथ पालन करना संभव है?
उत्तर : देश का क़ानून धर्म के क़ानूनी दस्तावेज़ का ही एक पाठ है, इस लिए देश के क़ानून का पालन करना धर्म ही का पालन करना है, दोनों अलग अलग क़ानून नहीं हैं, न एक दूसरे से कोई टकराव है, बल्कि धर्म ही राष्ट्र भक्ति और राष्ट्र के क़ानून को मानने पर बाध्य करता है, जहाँ क़ानून की नज़र नहीं होती, वहां भी क़ानून पर अमल करवाता है, जो जितना धार्मिक होगा, वह उतना ही राष्ट्र भक्त होगा, इंसान का अपने मुल्क की रक्षा के लिए, उस की सीमाओं की रक्षा के लिए, उस के अम्न व शांति के लिए जान दे देने का हौसला धर्म ही देता है, और उस को शहीद का दर्जा देता है,
عن عبد الله بن عمرو رضي الله عنهما قال : سمعت النبي صلى الله عليه وسلم يقول : "من قتل دون ماله فهو شهيد " رواه البخاري
अर्थ: "हज़रत अब्दुल्लाह बिन अमर (अल्लाह इन दोनों से प्रसन्न हो) से रवायत है की उन्हों ने कहा की मैं ने रसूलुल्लाह (आप पर अल्लाह का दरूद व स्लैम हो) को कहते हुए सुना की : जो अपने माल धन या प्रॉपर्टी की रक्षा करते हुए मारा गया, वह "शहीद" है, (इस को इमाम बुखारी ने रवायत किया है) अर्थात अपने मुल्क से बढ़ कर इंसान की क्या प्रॉपर्टी हो सकती है?!
प्रश्न : धर्मों में कट्टरता और खून खराबा है, मानवता के लिए कल्याण कारि कैसे?
उत्तर : यह सत्य नहीं है, जिस राज में मुजरिम को सजा न हो, वहां क़ानून वयवस्था चरमरा जाता है, मुजरिम को सजा मिलना ही चाहिए, यह कट्टरता नहीं बल्कि जुर्म की रोक थाम है, वरना क्राइम बढ़ता ही चला जायेगा,
धर्म होता ही है मानवता के कल्याण के लिए, न्याय के लिए, शांति के लिए, प्रेम और सद्भावना के लिए, हाँ न्याय दिलाने में, पीड़ित की सहायता करने में, शांति भांग करने वालों के रस्ते में, और अन्य पथ भरस्टों के लिए कट्टर अवश्य है, और होना भी चाहिए,ताकि न्याय दिलाने में सक्षम हो, फिर चाहे अपने निकटतम अत्य सज्जन के विरुद्ध में ही क्यों न हों, तो इसी एक चीज़ को हाई लाइट कर के धर्म को कट्टरता या खून खराबा करने वाला मान लेना उचित नहीं है, यह तो धर्म की खामी नहीं, बल्कि उसकी विशेषता और महानता है, अल्लाह ने क़ुरआन में फ़रमाया :
﴿وَلَوْلَا دَفْعُ اللَّـهِ النَّاسَ بَعْضَهُم بِبَعْضٍ لَّفَسَدَتِ الْأَرْضُ وَلَـٰكِنَّ اللَّـهَ ذُو فَضْلٍ عَلَى الْعَالَمِينَ﴾ سورة البقرة: 251
अर्थ: और यदि अल्लाह मनुष्यों के एक गिरोह को दूसरे गिरोह के द्वारा हटाता न रहता तो धरती की व्यवस्था बिगड़ जाती, किन्तु अल्लाह संसारवालों के लिए उदार अनुग्राही है (सूरह अलबक़रह: 251)
﴿وَلَوْلَا دَفْعُ اللَّـهِ النَّاسَ بَعْضَهُم بِبَعْضٍ لَّهُدِّمَتْ صَوَامِعُ وَبِيَعٌ وَصَلَوَاتٌ وَمَسَاجِدُ يُذْكَرُ فِيهَا اسْمُ اللَّـهِ كَثِيرًا ۗ وَلَيَنصُرَنَّ اللَّـهُ مَن يَنصُرُهُ ۗ إِنَّ اللَّـهَ لَقَوِيٌّ عَزِيزٌ﴾ سورة الحج: 40
अर्थ: यदि अल्लाह लोगों को एक-दूसरे के द्वारा हटाता न रहता तो मठ और गिरजा और यहूदी प्रार्थना भवन और मस्जिदें, जिनमें अल्लाह का अधिक नाम लिया जाता है, सब ढा दी जातीं। अल्लाह अवश्य उसकी सहायता करेगा, जो उसकी सहायता करेगा - निश्चय ही अल्लाह बड़ा बलवान, प्रभुत्वशाली है (सूरह अलहज्ज: 40)
अर्थात आप जिस को खून खराबा कह रहे हैं, वह जान माल सम्मान और अपने दाइत्व क्षेत्र में आने वालों की रक्षा के लिए उठाया गया अंतिम क़दम है, जब यही एक रास्ता रह गया हो,
हाँ! कभी कभी ऐसा होता है की धर्म का नाम प्रयोग कर के ग़लत क्या जाता है, उस में उन की कोई मजबूरी या लाभ होता है, तो यह तो उस वयक्ति का वयक्तिगत भूल है, न की धर्म का,
मान लीजिये कि कहीं पर महामारी फैली हुई हो, और वहां चिकित्सा का कोई उपाय न हो, लोग बेतहाषा मृत्यु के मुंह में जा रहे हों, ऐसे में कोई चिकित्स्क टीम आती है, और वह वहां के अधिकारीयों से कहती है, की आप भी हमारे साथ हो जाओ, और आओ हम सब मिल कर यहां फंसे लोगों की सहायता करने लग जाएँ, तो वह अधिकारी उन का साथ देने में अपना असमर्थ जताते हैं, तो टीम कहती है, की ठीक है, आप हमें इस कार्य में सेवा के माध्यम से सहयोग न दो सही, परन्तु तुम अपने कुछ धन राशि से ही हमारा साथ दो, ताकि हम इन्हें बचने में सक्षम हो सकें, तो वह अधिकारी इस को भी मानने से इंकार करते हैं, तो फिर टीम कहती है, की ठीक है, फिर आप के सहयोग के बिना हम से जितना हो सकेगा, उतना तो करेंगे, और लोगों की जान बचाएंगे,
परन्तु वह अधिकारी टीम का रास्ता रोक कर खड़े हो जाते हैं, की बचाव कार्य न तो हम करेंगे, और न तुम को ही करने देंगे, तो टीम कहती है, की तुम जैसे रोड़े को रास्ता से किसी भी क़ीमत पर हटा कर बचाव कार्य तो हम करेंगे, चाहे इस के लिए हमें तुम से युद्ध करना पड़े, यदि हमारे बचाव कार्य के लिए तुम हमारा रास्ता नहीं छोड़ते हो, तो युद्ध के लिए तैयार हो जाओ, यही है इस्लामी जिहाद,
प्रश्न : धर्मों के नियम कानून तो बहुत पुराने हैं, जो हमारे युग में चलने के क़ाबिल नहीं हैं, उन में बहुत सी बदलाव की आवयश्कता है?
उत्तर : हम किसी ऐसा धर्म के नियम पर बात करें जो पूर्ण प्राकृतिक व्यापक और सूर्य तारे जल अग्नि वायु की तरह कभी पुराने न होने वाले हों, और हर जगह हर समय किसी भी काल में संसार के सभी जिव जंतुओं के लिए एक समान लाभ दायक हो, ऐसा धर्म एकमात्र "इस्लाम" ही है,
प्रश्न : धर्म का अर्थ क्या है?
उत्तर : धर्म का अर्थ है क़ानून का वो दस्तावेज़ जो मानवता के कल्याण के लिए जीवन शैली पर आधारित हो, धार्मिक मान्यताएं,पूजा पद्धति एवं लेनदेन और व्यवहार इत्यादि जैसे जीवन में पेश आने वाले सभी लाभदायक मामलों में मार्गदर्शन पर शम्मिलित हो,
प्रश्न : क्या सभी धर्म एक जैसे हैं?
उत्तर : धर्म वास्तविकता के दृष्टिकोण से दो प्रकार के हैं:
१ - सोयं संसार के निर्माता और जग के विधाता का बनाया हुआ,
२ - इस संसार में बसने वाले ऋषि मुनियों द्वारा बनाया गया,
१ - वह धर्म जो संसार के निर्माता ने सोयं उस को बना के अपने दूत द्वारा अपने पैग़ंबर को भेजा, ताकि वह अल्लाह के उस पैग़ाम को सरे लोगों तक पहुंचा दें, और जब पैग़ंबरों के आने का सिलसिला अंत हो जाये, तो फिर अल्लाह से कोई नया पैग़ाम का आना भी बंद हो जायेगा, परन्तु आखरी पैग़ंबर पर उतारे गए अल्लाह के उस धर्म को क़यामत तक के सारे लोगों तक पहुंचना आखरी पैग़ंबर के मानने वालों पर अनिवार्य है, यह एकेश्वरवाद का धर्म है,
२ - दूसरा वह धर्म है, जिस को इस दुनिया में बसने वाले किसी ऋषि मुनी ने तैयार किया हो, और अपने शिष्यों को जीवन यापन का सुंदर नियम क़ानून और लिखा जोखा दिया हो, उसकी अच्छाई को देखते हुए उस समय के लोगों ने भी उस को अपनाया,उस के अच्छे गुणों के कारण वह फैलता ही चला गया, और एक समय आया जब इस ने धर्म का रूप ले लिया, यह धर्म ऋषि मुनी के विचारधारा पर निर्भर करता है, कोई एकेश्वरवाद, तो कोई अनेक ईश्वरों पर विश्वास दिलाता है,
यदि धर्म को परमात्मा अथवा ईश्वर पर विश्वास के दृष्टिकोण से देखा जाये, तो धर्म दो प्रकार के हैं:
१ - एकेश्वरवाद का धर्म, मात्र एक ही ईश्वर पर विश्वास,
२ - अनेक ईश्वरवाद का धर्म, अलग अलग क्षेत्र के भिन्न भिन्न ईश्वर पर विश्वास,
सभी धर्मों के बीच कुछ बातों में समानता है, सभी धर्म दुनिया को बनाने वाले पर विश्वास रखते हैं, उस की पूजा अर्चना की बात करते हैं, न्याय सहयोग मानवता प्रेम और सेवा सिखाते हैं, अच्छे चरित्र का ज्ञान देते हैं, दूसरे धर्मों के साथ कैसा वयवहार करना है, जिव जंतुओं के साथ कैसे पेश आना है, यह सब सिखाते हैं, और यह सब उसी विधाता व निर्माता पालनहार तक पहुंचना चाहते हैं, इस हिसाब से तो सभी धर्म एक जैसे हैं, परन्तु वास्तविक में वह सब अलग अलग हैं, तभी तो अलग अलग धर्म कहलाये, क्यों की सब का रास्ता अलग अलग है, सब की सिद्धांत और ईश्वर में विश्वास भिन्न भिन्न प्रकार से है,
عن أبي هريرة قال قال رسول الله صلى الله عليه وسلم أنا أولى الناس بعيسى ابن مريم في الدنيا والآخرة والأنبياء إخوة لعلات أمهاتهم شتى ودينهم واحد" (متفق عليه)
अर्थ: हजरत अबू हुरैरह (अल्लाह इन से प्रसन्न हो) से रवायत है की अल्लाह के रसूल (आप पर अल्लाह का दरूद व सलाम हो) ने फ़रमाया : मैं इसा बिन मरयम से सबसे अधिक निकटतम हूँ, दुनिया में भी, और आख़िरत में भी, और सभी पैग़ंबर आपस में सौतेले भाई हैं, सब की माताएं भिन्न भिन्न हैं, और उन सब का धर्म एक है, (इस को बुखारी व मुस्लिम ने बयान किया है)
अर्थात: सभी की शरीयत और पूजा अर्चना की विधि इत्त्यादि में समय जगह और स्थितियों अनुसार अंतर् रहा है, जो की माता समान है, तो सब की माता अलग अलग हुई, परन्तु धार्मिक विचारधारा और मान्यताएं पिता समान है, और इस में सभी एक हैं,तो सब का पिता एक हुआ, (इस को बुखारी व मुस्लिम ने रिवायत किया)
﴿لِكُلٍّ جَعَلْنَا مِنكُمْ شِرْعَةً وَمِنْهَاجًا﴾ سورة المائدة: ٤٨
अर्थ: तुम में से प्रत्येक (उम्मत, समुदाय, क़ौम) के लिए हमने एक विधि (शरीयत) और पथ (कार्यशेली) बना दिया है, (सूरह अल-माइदह: 48)
प्रश्न : धार्मिक जीवनशैली की विधि और क़ानून कहाँ से मिलेगा?
उत्तर : धर्म ग्रन्थ ही एक मात्र धार्मिक क़ानूनी दस्तावेज़ है, जहाँ से धर्म या धार्मिक मार्ग निर्देशन लिया जायेगा, जिस वयक्ति को ज्ञान न हो, वह धर्म गरुओं से सम्पर्क साध कर ज्ञान ले सकता है, परन्तु धर्म गृ से अँधा विश्वाश न करे, बल्कि उस की बात का धर्म ग्रन्थ से रेफरन्स मांगे, अगर दो धर्म गरुओं की बात में अंतर हो जाये, तो जिस की बात धर्म ग्रन्थ से अधिक मेल खाये, उस को मान ले, सुनी सुनाई बातों को अथवा क़िस्सा कहानियों को धर्म का दर्जा न दे, जो धर्म गृ मन मानी करे, या कोई ऐसी बात बताये, या धर्म ग्रन्थ का ऐसा अर्थ बताये, जो इस से पूर्व धार्मिक मार्गदर्शकों ने नहीं बताई, तो उस बात या उस अर्थ को धर्म न समझे, अल्लाह ने फ़रमाया :
﴿اتَّبِعُوا مَا أُنزِلَ إِلَيْكُم مِّن رَّبِّكُمْ وَلَا تَتَّبِعُوا مِن دُونِهِ أَوْلِيَاءَ ۗ قَلِيلًا مَّا تَذَكَّرُونَ﴾ سورة الأعراف: 2
अर्थ: जो कुछ तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी ओर अवतरित हुआ है, उस पर चलो और उसे छोड़कर दूसरे संरक्षक मित्रों का अनुसरण न करो। तुम लोग नसीहत थोड़े ही मानते हो (सूरह अलआ'राफ: 3)
प्रश्न : जब सभी धर्म अलग अलग रास्ते हैं, मंजिल सब की एक ही है, तो क्या किसी भी एक धर्म को अपनाना सहीह है?
यह सही है कि सभी धर्म का उद्देश्य परमात्मा तक पहुंचना ही है, परन्तु रास्ता सब का अलग अलग है, और जब रास्ता अलग हो जाये, तो यह ज़रूरी नहीं की मंज़िल एक ही रह जाये, इरादा नेक है, परन्तु हर नेक इरादा सही नहीं होता, और जब मंज़िल सोयं अपना पता ठिकाना बताये, और यह भी चेताये की मुझ तक पहुँचने का मात्र एक ही रास्ता है, तो फिर दूसरे रास्ते का संभावना कहाँ रह जाता है, अल्लाह ने उस तक पहुँचने का रास्ता बताते हुए क़ुरआन में कहा:
﴿إِنَّ الدِّينَ عِندَ اللَّـهِ الْإِسْلَامُ﴾ سورة آل عمران: ١٩
अर्थ: दीन (धर्म) तो अल्लाह की स्पष्ट में (एकमात्र) इस्लाम ही है, (सूरह आल-इमरान: 19)
और यह भी कहा की:
﴿وَمَن يَبْتَغِ غَيْرَ الْإِسْلَامِ دِينًا فَلَن يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الْآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ﴾ سورة آل عمران: ٨٥
अर्थ: जो इस्लाम के अतिरिक्त कोई और दीन (धर्म) तलब करेगा तो उसकी ओर से कुछ भी स्वीकार न किया जाएगा। और आख़िरत में वह घाटा उठानेवालों में से होगा, (सूरह आल-इमरान: 85)
प्रश्न : आप धर्मों के नाम पर एकमात्र इस्लाम ही को सहीह मानते हैं, दूसरे धर्मों की बात नहीं करते, इस का क्या कारण है?
1 - इसलिए की इस्लाम ही एकमात्र जग के निर्माता का बनाया हुआ धर्म है,
2 - इसलिए की इस्लाम ही एकमात्र प्रथम मनुष्य से ले कर क़यामत तक हर वर्ग का धर्म है,
3 - इसलिए की इस्लाम ही एकमात्र जग के निर्माता का पसंदीदह धर्म है,
4 - इसलिए की इस्लाम ही एकमात्र जहन्नम या नर्क से बचने और स्वर्ग प्रति का धर्म है,
5 - इसलिए की धर्म के रूप में एकमात्र इस्लाम ही जग के निर्माता का स्वीकार्य है,
6 - इसलिए की इस्लाम के बिना कोई भी शुभ कार्य अल्लाह को स्वीकार्य नहीं है,
7 - इसलिए की इस्लाम ही एकमात्र सदा से सच्चा धर्म है, और दूसरे अधिकतर धर्म के बिगड़े हुए रूप हैं, कोई भी मिलावट और हेर फेर से सुरक्षित नहीं रहा है, जब की संपूर्ण इस्लाम आने के बाद दूसरे सभी धर्म की समय सीमा समाप्त हो गई है,
प्रश्न : सब से अच्छा और सच्चा धर्म कोन सा है?
उत्तर : धर्मों में सब से अच्छा और सच्चा धर्म "इस्लाम" है, जो अल्लाह की बनाई हुई जीवनशैली है, सम्पूर्ण है, और मानव कल्याण के किसी भी चीज़ को उल्लेख करना नहीं छोड़ा, आत्मा और ज्ञान के सठीक अनुसार है, इस के नियम क़ानून प्रकृति व भौतिक हैं, जो सद्भावना शांति प्रेम और कल्याणमय है, इस की विशेषताएं बहुत सारी हैं, पवित्र क़ुरआन में अल्लाह ने फ़रमाया:
﴿إِنَّ الدِّينَ عِندَ اللَّـهِ الْإِسْلَامُ﴾ سورة آل عمران: ١٩
अर्थ: दीन (धर्म) तो अल्लाह की स्पष्ट में इस्लाम ही है, (सूरह आल-इमरान: 19)
प्रश्न : संसार में बहुत से धर्म हैं, केवल इस्लाम ही क्यों?
उत्तर : अल्लाह ने इस्लाम को ही धर्म के रूप में स्वीकार कर लिया है, जो दुनिया के प्रथम इंसान बाबा आदम से ले कर रहती दुनिया तक सभी के लिए है, प्रथम चरण में समय और स्थिति अनुसार प्रावधान कार्यशेली और शरीयत बदलते रहे, जब की मान्यताएं और अक़ीदह एक ही रहा,
﴿لِكُلٍّ جَعَلْنَا مِنكُمْ شِرْعَةً وَمِنْهَاجًا﴾ سورة المائدة: ٤٨
अर्थ: तुम में से प्रत्येक (उम्मत, समुदाय, क़ौम) के लिए हमने एक विधि (शरीयत) और पथ (कार्यशेली) बनाया दिया है, (सूरह अल-माइदह: 48)
यहां तक की जब समय और स्थिति ऐसे बन गए, की अब से ले कर रहती दुनिया तक पूरा इस्लाम और संपूर्ण कार्यशेली चलने के क़ाबिल हो गए, तो पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) पर उतरा, जो आज तक है, और क़यामत तक रहेगा, जब की अल्लाह को भी धर्म के रूप में एकमात्र इस्लाम धर्म ही स्वीकार्य है, अल्लाह ने फ़रमाया:
﴿إِنَّ الدِّينَ عِندَ اللَّـهِ الْإِسْلَامُ﴾ سورة آل عمران: ١٩
अर्थ: दीन (धर्म) तो अल्लाह की स्पष्ट में इस्लाम ही है, (सूरह आल-इमरान: 19)
और जब इस्लाम ही एकमात्र स्वीकार्य धर्म है, तो उस को अल्लाह ने कई चरणों में उतार कर आखिर पूरा किया, और इस के संपूर्ण होने, और स्वयं इस से संतुष्ट होने का एलान भी किया:
﴿الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الْإِسْلَامَ دِينًا﴾ سورة المائدة: ٣
अर्थ: आज मैंने तुम्हारे धर्म को पूर्ण कर दिया और तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दी और मैंने तुम्हारे धर्म के रूप में इस्लाम को पसन्द किया, (सूरह अल-माइदह: 3)
साथ में यह भी बता दिया, की इस्लाम को छोड़ कोई और धर्म अल्लाह को स्वीकार्य नहीं है, और इस्लाम में प्रवेश किये बिना कोई भी कार्य लाभ दायक नहीं हो सकता,
﴿وَمَن يَبْتَغِ غَيْرَ الْإِسْلَامِ دِينًا فَلَن يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الْآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ﴾ سورة آل عمران: ٨٥
अर्थ: जो इस्लाम के अतिरिक्त कोई और दीन (धर्म) तलब करेगा तो उसकी ओर से कुछ भी स्वीकार न किया जाएगा। और आख़िरत में वह घाटा उठानेवालों में से होगा, (सूरह आल-इमरान: 85)
प्रश्न : ऐसी क्या विशेषताएं हैं की इस्लाम सब से अच्छा धर्म है?
उत्तर : इस्लाम की विशेषताओं में से चंद निम्न प्रकार हैं:
इस्लाम की खूबियां
· इस्लाम ही एकमात्र प्रकृति धर्म है।
· इस्लाम नरक से स्वतंत्रता का एकमात्र माध्यम है।
· केवल इस्लाम ही धर्म के रूप में अल्लाह को मान्य है।
· इस्लाम के अंतर्गत रहते हुए ही कोई भी कार्य या पुण्य अल्लाह को मान्य है।
· हर शिशु इस्लामी विचारधारा पर पैदा होता है, अगर बड़ा हो कर उस को न बदला गया, तो उसकी विचारधारा इस्लाम अनुसार ही होगी।
इस्लाम की विशेष विशेषताएं
इस्लाम की आधार कहानियों या सदियों बाद लिखी जाने वाली बिना सनद की किताबों पर नहीं, बल्कि वास्तविक में अल्लाह के दूत और पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद पर उतरने वाला "पवित्र क़ुरआन" है, जो पुख्ता सबूतों के साथ बिना छेड छाड के हम तक पोहंचा है। हज़रत मुहम्मद तक तो दुनिया ने माना हुआ है, रही बात अल्लाह की तरफ से नाज़िल होने की, तो इस में भी कोई संदेह की गुंजाइश ही नहीं, सोयम पवित्र क़ुरान खुद को अल्लाह का कलाम होना साबित करता है, बल्कि न मानने वालों को चुनौती देता है, और यह चुनौती रहती दुनिया तक रहेगी,
1- इस्लाम एक मात्र अल्लाह का बनाया हुआ क़ानून है।
2- इस्लाम एकेश्वरवाद का धर्म है।
3- इस्लाम ऊंच नीच बड़ा छोटा अमीर ग़रीब और ज़ात पात इत्यादि जैसे भेद भाव की कठोर शब्दों में निंदा करता है।
4- इस्लाम बराबरी, न्याय, प्रेम और सद्भाव का धर्म है।
5- इस्लाम का कानून और व्यवस्था हमेशा हर समय और स्थान के लिए है।
6- इस्लामी कानून मानव प्रकृति और बुद्धि अनुसार है।
7- इस्लाम एक पूर्ण और व्यापक धर्म है, मानव कल्याण की कोई व्याख्या छूट नहीं गई, सम्पूर्ण जीवन पर आधारित मार्गदर्शन की है।
8- इस्लाम ने धन प्राण और गरिमा की रक्षा की पूरी गैरेंटी दी है।
9- इस्लाम के कानून मानव जाति के शारीरिक व दिमाग़ी शक्ति के अनुकूल, एवं हर वर्ग के चलने की क्षमता रखने के क़ाबिल है।
10- इस्लाम पुरे संसार, पृथ्वी, आकाश, पाताल, ब्रह्माण्ड और उसके अंदर बाहर के सभी जिव जन्तुओं के साथ प्रेम दया और सद्भाव का पथ पढ़ता है।
प्रश्न : इस्लाम धर्म की वास्तविकता क्या है?
उत्तर : धार्मिक दृष्टिकोण से देखें तो दुनिया तीन ही चीज़ों के अंतर्गत समाई हुई है,
१- कल्पना : किसी भी प्रकार से सोच विचार करना, फिर उस को या तो स्वीकार कर लेना, या नकार देना, इस को धार्मिक मान्यताएं या धार्मिक विचारधारा भी कह सकते हैं, इस्लाम में इस को "अक़ीदह" कहा जाता है,
२- कार्य : शरीर के अंग अंग से जो कुछ भी किया जाये, खाना, पीना, सोना, जागना, हंसना, बोलना, इत्यादि, इस को धार्मिक दृष्टिकोण से पूजा अर्चना या "इबादत" कहा जाता है,
३- आचरण : अपनी आत्मा और अपने शरीर को छोड़ कर दुनिया के साथ जीवन यापन की विधि मानवता और वयवहार के नियम क़ानून,
इन तीनों मुख्य बिंदुओं के स्रोत को जानना भी महत्वपूर्ण है, की इन को मान्य रूप से प्राप्त कहाँ से किया जायेगा,
(१) मान्यता विचारधारा या "अक़ीदह"
यह भविष्य अनदेखी या ग़ायबी बातों पर आधारित है, इन को कोई नहीं जनता सिवाए अल्लाह के, हाँ कुछ मानव कल्याण पर आधारित ऐसी बातें अल्लाह अपने दूत द्वारा पैग़ंबरों को बताते हैं, इस लिए यह बातें केवल अल्लाह के कलाम "पवित्र क़ुरआन" से या रसूल की जीवनीय 'हदीस' से ही मिल सकेंगी, अक़ीदह के स्रोत मात्र दो २ हैं:
१- पवित्र क़ुरआन
२- सहीह हदीस
उसी व्याख्या के साथ जो हमारे पूर्वज (पहली दूसरी और तीसरी सदी के मान्यता वाले धार्मिक विद्वान) वर्णन कर गए हैं, क्यों कि क़ुरआन उन के सामने उतर रहा था, तो उन से अधिक क़ुरआन का ज्ञान और किस को हो सकता है, जब की इन में कोई चीज़ बदलने वाली भी नहीं है, की जिस से नई व्याख्या की आवयश्कता पड़ जाये,
﴿فَإِنْ آمَنُوا بِمِثْلِ مَا آمَنتُم بِهِ فَقَدِ اهْتَدَوا﴾ سورة البقرة: ١٣٧
अर्थ: फिर यदि वे उसी तरह ईमान लाएँ जिस तरह तुम ईमान लाए हो, तो उन्होंने मार्ग पा लिया। (सूरह अल-बक़रह: 137)
(२) कार्य पूजा अर्चना या "इबादत"
सभी प्रकार के ऐसे कार्य जो पुण्य प्राप्ति के उद्देश्य से किये जाएँ, वह "इबादत" कहे जाते हैं, और ऐसे सभी कार्य एकमात्र अल्लाह को प्रसन्न करने के उद्देश्य से होना चाहिए, कोई और उद्देश्य अथवा किसी ग़ैर को उस कार्य के उद्देश्य में साझा या शरीक करना "शिर्क" होगा,
﴿وَمَا أُمِرُوا إِلَّا لِيَعْبُدُوا اللَّـهَ مُخْلِصِينَ لَهُ الدِّينَ حُنَفَاءَ وَيُقِيمُوا الصَّلَاةَ وَيُؤْتُوا الزَّكَاةَ وَذَٰلِكَ دِينُ الْقَيِّمَةِ﴾ سورة البينة: ٥
अर्थ: और उन्हें आदेश भी बस यही दिया गया था कि वे अल्लाह की बन्दगी करे निष्ठा एवं विनयशीलता को उसके लिए विशिष्ट करके, बिलकुल एकाग्र होकर, और नमाज़ की पाबन्दी करें और ज़कात दे। और यही है सत्यवादी समुदाय का धर्म, (सूरह अल-बय्येनेह: ५)
पूजा अर्चना या "इबादत" के विधि और नियम क़ानून हैं, उस अनुसार यह विधि या नियम एकमात्र केवल अल्लाह ही बना सकता है, क्यों की केवल वही जानता है की कोण सा नियम क़ायदा क़ानून पुरे संसार के लिए, हर प्रकार के जीवों के लिए, हर समय और हमेशा के लिए चलने लायक है, जो न एक्सपायर हो, न कभी खिन उस का लाभ कम हो, और फिर इस नियम को संसार में लागू करने की शक्ति व क्षमता भी रखता है,
इस लिए पूजा अर्चना या पुण्य के उद्देश्य से कार्य के नियम वह खुद बनाया, इस का अधिकार किसी दूत किसी पैग़ंबर किसी ऋषिमुनि या किसी भी प्राणी को नहीं दिया, इस लिए जिस किसी को जो भी मन में आये, वैसे ही पूजा अर्चना करना अल्लाह को बिलकुल भी मान्य नहीं है, जब भी पुण्य प्राप्ति के उद्देश्य से कोई कार्य करना चाहें, तो उस कार्य की मान्यता अथवा उस की नियम विधि को केवल क़ुरआन व हदीस से प्रमाणित कर लेना अनिवार्य है, नहीं तो उस कार्य का कोई लाभ नहीं मिलेगा, उल्टा पाप के भागीदार हँगे, क्यों की आप ने वह काम किया, जिस का अधिकार आप को नहीं दिया गया था,
१- पवित्र क़ुरआन
२- सहीह हदीस
उसी व्याख्या के साथ जो हमारे पूर्वज वर्णन कर गए हैं, इस बिंदु में क़ुरआन और हदीस से मसला निकलने के लिए दो तरीक़ा है,खास कर जो मसला क़ुरआन या हदीस में हम को नज़र न आ सकें, वैसे तो कुछ भी छूटा नहीं है, परन्तु बहुत सी नई चीज़ें उस समय नहीं थीं जब क़ुरआन उतर रहा था, तो उस समय आज के समय की चीज़ों को ऐसे नाम या इशारे में बयान किया गया है,की हर किसी को समझ में आना संभव नहीं है, ऐसे में
३- हमारे पूर्वजों की आम सहमति (इज्मा ए उम्मत)
से पारित हुआ मसला भी मान्य होगा, अगर वह क़ुरआन या हदीस से न टकराता हो,
४- क़ुरआन व हदीस पर कयास करना,
धार्मिक बुद्धिजीविओं के माध्यम से पुराने नियम को आधार बना कर नए मुद्दों का समाधान करना, कोई भी नया मुद्दा है, जो हमें क़ुरआन हदीस और पूर्वजों की सर्वसहमति से पारित दस्तावेज़ों में नज़र न आए, तो हम धार्मिक बुद्धिजीवियों से सम्पर्क करेंगे,वह पारम्परिक किसी पुराने मसले से जोड़ कर उस के अनुसार इस नए मसले का हल निकालेंगे, जो की क़ुरआन या हदीस से न टकराता हो, क्यों की क़ुरआन और हदीस ही असल स्रोत हैं, तो उन से टकराने वाला मसला अस्वीकार्य होगा,
३- आचरण, दुनिया के साथ जीवन यापन की विधि
इस्लाम धर्म ने सदा मानवता प्रेम सद्भाव सुंदर वयवहार और दूसरों की सेवा करने का पाठ पढ़ाया है, सचाई और सच का साथ देने, लेन देन में खरा होने, और सभी प्रकार के अच्छे गुणों को अपनाने का आदेश देता है,
हाँ ! किसी के खान पान, वस्त्र इत्त्यादि जैसी दुनिया के मामलात में आज़ादी दे रखी है, हर आदमी क्या खायेगा, क्या पहनेगा,कौन सा रंग पसंद करेगा, यह सब उस की अपनी पसंद या न पसंद पर है, इस के लिए किसी को क़ुरआन या हदीस से प्रमाण लाने की आवयश्कता नहीं है,
عن أنس رضي الله عنه أن رسول الله صلى الله عليه وسلم قال: "أنتم أعلم بأمور دنياكم" رواه مسلم وابن خزيمة وابن حبان في صحيحيهما.
अर्थ: हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु (अल्लाह इन से प्रसन्न हो) से रिवायत है, कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) ने फ़रमाया: "तुम्हारी दुनिया के मामलात में तुम ही अधिक बेहतर जानते हो" (इस को इमाम मुस्लिम, इब्न खुजैमह और इब्न हिब्बान ने रिवायत किया है)
मानवता व आचरण और निर्माता को छोड़ बाक़ी संसार के साथ जीवन यापन करने हेतु नियम क़ानून, वैसे संसार को निर्माता ने मानव के लिए बनाया है, इस लिए असल में तो मनुष्य को अपनी चाहत अनुसार जीने का अधिकार है, परन्तु किसी की चाहत से किसी और का अधिकार का हनन न हो, इस के लिए बहुत संक्षेप में मोती मोती बातें बताई हैं, जैसे की ऐसे ऐसे वस्त्र न पहनो,ऐसी ऐसी चीज़ न खाओ, ऐसी चाल न चलो, ऐसे व्यवहार न करो, इत्त्यादि, दर असल उस में हमारा ही नुकसान छिपा होता है,इसी लिए अल्लाह हमें उन से रोकता है,
पहले दो बिंदुओं के विपरीत इस बिंदु में रोकने के लिए क़ुरआन व हदीस से प्रमाण चाहिए, क्यों की यह असल में जायज़ है, तो रोकने के लिए दलील और प्रमाण की आवयश्कता है,
जब की पहली दो बिंदुओं में असल ना जायज़ है, इस लिए उन में करने के लिए प्रमाण या दलील चाहिए, क्यों की प्रमाण अभियोक्ता और मुद्दई को देना पड़ता है, प्रतिवादी और मुल्ज़िम को नहीं, तो पहले की दोनों बिंदुओं में कोई कार्य करने का इच्छुक अभियोक्ता और मुद्दई है, इस लिए प्रमाण उसी को देना है, जो नकारता है, उस से प्रमाण नहीं माँगा जायेगा, क्यों की वह प्रतिवादी और मुल्ज़िम है, ठीक उस के विपरीत इस तीसरे बिंदु में रोकने वाला अभियोक्ता और मुद्दई है, इस लिए रोकने वाले को ही दलील देनी पड़ेगी,
पहले बिंदु पर यह जानना आवश्यक है की यह अधिकतर अनदेखी नज़र न आने वाली बातों पर आधारित है, इसी प्रकार भविष्यवाणी मृत्यु के बाद की सूचनाएं, क़ब्र की खबरें, क़यामत के दिन की बातें, स्वर्ग्य व नरख के हालात, और अल्लाह के बारे में है, और ग़ैब या भविष्य के बारे एकमात्र अल्लाह ही को जानकारी है, कोई फरिश्ता, ईश्वर दूत, ऋषिमुनि, नबी रसूल या संसार का कोई भी इस बारे में कुछ नहीं जानता, इस लिए या तो अल्लाह खुद बताएगा, जो अवश्य उस की क़ुरआन के अंदर उपलब्ध होगा, या अल्लाह ने अपने नबी रसूल को बताया होगा, तो वह रसूल की जीवनी या प्रवचनों में मौजूद होगा, और वह हदीस के अंदर अवश्य होगा,
﴿مَّا فَرَّطْنَا فِي الْكِتَابِ مِن شَيْءٍ﴾ سورة الأنعام: 38
अर्थ: हमने किताब में कोई भी चीज़ नहीं छोड़ी है। (सूरह अल'अन'आम: 38)
अर्थात अल्लाह ने क़ुरआन में किसी भी ऐसी बात की व्याख्या नहीं छोड़ी, जिस का मानवता की कल्याण से हल्का भी संबंध रहा हो, हर लाभ दायक बातों की ओर पवित्र क़ुरआन में अवश्य मार्ग दर्शन कर दिया है, जिस को बयान नहीं किया है, उस में मानवता की कल्याण वाली कोई बात हो ही नहीं सकती,
इस लिए इस बिंदु पर आधारित बातों को केवल एकमात्र क़ुरआन और हदीस से ही प्रमाणित किया जा सकता है, दूसरा कोई भी प्रमाण अस्वीकार्य होगा, पवित्र क़ुरआन और सहीह हदीस ही इस्लामिक कल्पनाओं मान्यताओं या इस्लामी अक़ीदह के एकमात्र स्रोत हैं, वह भी किसी नई व्याख्या के साथ नहीं, बल्कि उन आयतों हदीसों या अश्लोकों का जो वर्णन अपने प्रवचनों में या सोयं वह कार्य कर के पैग़ंबर ने दिखाया है, या आप के साथिओं ने जो अर्थ समझा है, वही स्वीकार्य होगा,
روى الإمام مالك بلاغا أن رسول الله صلى الله عليه وسلم قال: "تركت فيكم أمرين لن تضلوا ما تمسكتم بهما كتاب الله وسنة رسوله" كتاب الموطأ (3338) وانظر" التمهيد 24/ 331 وصححه الألباني في صحيح الجامع (2937)
अर्थ: इमाम मालिक रहमतुल्लाहि अलैह ने रिवायत किया है, की उन तक यह हदीस पहुंची है की रसूलुल्लाह (आप पर अल्लाह का दरूद व सलाम हो) ने फ़रमाया: "मैं तुम्हारे बीच दो चीज़ें छोड़े जा रहा हूँ, जब तक तुम उन दोनों को मज़बूती से थामे रहोगे,हरगिज़ पथ भर्स्ट नहीं होंगे, एक अल्लाह की किताब (पवित्र क़ुरआन) और दूसरी अल्लाह के रसूल की (हदीस) सुन्नत" (इस हदीस को शैख़ अल्बानी ने "सहीह" कहा है, सहीह अल जमा 2937)
इस्लाम में विचारधारा की अत्यंत महत्व है, विचारधारा में अंतर् आ जाने से अलग फ़िरक़ा अलग गूट अलग जमाअत अलग मज़हब बन जाता है, और अगर अधिक अंतर् आ जाये तो वह इस्लाम से बाहर एवं एक अलग धर्म कहलाता है, इस लिए की अल्लाह की अस्तित्व कभी नहीं बदलेगी, मृत्यु क़ब्र क़यामत स्वर्ग नरख इत्त्यादि की अस्तित्व बदलने वाली वस्तु नहीं हैं की अलग अलग विचारधारा बने, यहां तक की बाबा आदम से ले कर आखरी नबी मुहम्मद तक एक लाख चौबीस हज़ार (124000) के लग भग पैग़ंबर नबी रसूल इस दुनिया में आए, उन सब का विचारधारा मान्यताएं और अक़ीदह एक ही रहा है, हाँ दूसरे बिंदु में वह सब अलग अलग हुए हैं,
عن أبي هريرة قال قال رسول الله صلى الله عليه وسلم: "أنا أولى الناس بعيسى ابن مريم في الدنيا والآخرة والأنبياء إخوة لعلات أمهاتهم شتى ودينهم واحد" (متفق عليه)
अर्थ: हजरत अबू हुरैरह (अल्लाह इन से प्रसन्न हो) से रवायत है की अल्लाह के रसूल (आप पर अल्लाह का दरूद व सलाम हो) ने फ़रमाया : मैं इसा बिन मरयम से सबसे अधिक निकटतम हूँ, दुनिया में भी, और आख़िरत में भी, और सभी पैग़ंबर आपस में सौतेले भाई हैं, सब की माताएं भिन्न भिन्न हैं, और उन सब का धर्म एक है, (इस को बुखारी व मुस्लिम ने बयान किया है)
अर्थात: सभी की शरीयत और पूजा अर्चना की विधि इत्त्यादि में समय जगह और स्थितियों अनुसार अंतर् रहा है, जो की माता समान है, तो सब की माता अलग अलग हुई, परन्तु धार्मिक विचारधारा और मान्यताएं पिता समान है, और इस में सभी एक हैं,तो सब का पिता एक हुआ,
इन में से किसी भी बिंदु पर पुण्य प्राप्ति के उद्देश्य से कोई कार्य किया जाये तो वह इस्लाम में "इबादत" कहलाता है, और ऐसे में क़ुरआन या हदीस से उस कार्य को प्रमाणित करना अत्यंत आवयश्क है, बिना प्रमाण के जो कार्य किया जाये, उसे इस्लाम धर्म अनुसार "बिद'अत" (नया कार्य जो इस्लाम के सिद्धांत में से नहीं है) कहा जाता है, और बिद'अत इस्लाम में अत्यंत हानिकारक व वर्जित है, यह दण्डनीय अपराध है, और ऐसे वयक्ति के अच्छे कार्य भी अस्वीकार्य हो जाते हैं,
عن عائشة رضي الله عنها قالت قال رسول الله صلى الله عليه وسلم "من أحدث في أمرنا هذا ما ليس منه فهو رد" أخرجه البخاري ومسلم
अर्थ: हज़रत आयशह (अल्लाह इन से प्रसन्न हो) से रवायत है की अल्लाह के रसूल (आप पर अल्लाह का दरूद व सलाम हो) ने फ़रमाया : जिस व्यक्ति ने हमारे इस धर्म में कोई ऐसा नया कार्य प्रारम्भ किया जो पहले से इस के अंतर्गत न रहा हो, तो वह अस्वीकार्य है, (इस को बुखारी व मुस्लिम ने बयान किया है) और सहीह मुस्लिम की एक रिवायत में है की:
"من عمل عملا ليس عليه أمرنا فهو رد"
अर्थ: जिस व्यक्ति ने कोई ऐसा कार्य किया जिस पर हमारा धर्म नहीं है, तो वह अस्वीकार्य है,
प्रश्न : यदि कोई ग़ैर मुस्लिम अच्छा कार्य करता है, तो उस का फल उस को क्यों नहीं मिलेगा?
अवश्य मिलेगा, परन्तु उस ने मालिक से समझौता (अग्रीमेंट) नहीं किया है, इस लिए मालिक की मर्ज़ी से मिलेगा, उस समझौता का नाम: "इस्लाम" है, और मालिक ने कहा है की जो मुझ से अग्रीमेंट किये बिना मेरा काम करेगा, उस को मैं इसी दुनिया में धन संतान खुशहाली इत्त्यादि के रूप में मुआवज़ा दूंगा, और आख़िरत में उसे कुछ नहीं मिलेगा, परन्तु जो अल्लाह के साथ एग्रीमेंट (समझौता) करता है, अर्थात इस्लाम में होते हुए अच्छे कर्म करता है, अल्लाह उस के एक एक कर्म को लिखित रूप से सुरक्षित प्रदान करते हैं, और एक एक का मुआवज़ा देंगे,
﴿فَمَن يَعْمَلْ مِنَ الصَّالِحَاتِ وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَلَا كُفْرَانَ لِسَعْيِهِ وَإِنَّا لَهُ كَاتِبُونَ﴾ سورة الأنبياء: ٩٤
अर्थ: "फिर जो अच्छे कर्म करेगा, शर्त या कि वह मोमिन हो, तो उसके प्रयास की उपेक्षा न होगी। हम तो उसके लिए उसे लिख रहे है", (सूरह अल-अंबिया: ९४)
आख़िरत के लिए उनकी मेहनत मजदूरी बेकार नहीं जाएगी,
﴿وَمَنْ أَرَادَ الْآخِرَةَ وَسَعَىٰ لَهَا سَعْيَهَا وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَأُولَـٰئِكَ كَانَ سَعْيُهُم مَّشْكُورًا﴾ سورة الإسراء: ١٩
अर्थ: "और जो आख़िरत चाहता हो और उसके लिए ऐसा प्रयास भी करे जैसा कि उसके लिए प्रयास करना चाहिए और वह हो मोमिन, तो ऐसे ही लोग है जिनके प्रयास की क़द्र की जाएगी", (सूरह अल-इस्रा: १९)
ऐसे वयक्ति के लिए दुनिया भी अच्छी, और आख़िरत भी सुखी होगी,
﴿مَنْ عَمِلَ صَالِحًا مِّن ذَكَرٍ أَوْ أُنثَىٰ وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَلَنُحْيِيَنَّهُ حَيَاةً طَيِّبَةً وَلَنَجْزِيَنَّهُمْ أَجْرَهُم بِأَحْسَنِ مَا كَانُوا يَعْمَلُونَ﴾ سورة النحل: ٩٧
अर्थ: "जिस किसी ने भी अच्छा कर्म किया, पुरुष हो या स्त्री, शर्त यह है कि वह ईमान पर हो, तो हम उसे अवश्य पवित्र जीवन-यापन कराएँगे। ऐसे लोग जो अच्छा कर्म करते रहे उसके बदले में हम उन्हें अवश्य उनका प्रतिदान प्रदान करेंगे", (सूरह अल-नहल: ९७)
ऐसे ही लोगों के लिए स्वर्ग और उस के भीतर बहुत कुछ अनुग्रह है,
﴿مَنْ عَمِلَ سَيِّئَةً فَلَا يُجْزَىٰ إِلَّا مِثْلَهَا وَمَنْ عَمِلَ صَالِحًا مِّن ذَكَرٍ أَوْ أُنثَىٰ وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَأُولَـٰئِكَ يَدْخُلُونَ الْجَنَّةَ يُرْزَقُونَ فِيهَا بِغَيْرِ حِسَابٍ﴾ سورة غافر: ٤٠
अर्थ: "जिस किसी ने बुराई की तो उसे वैसा ही बदला मिलेगा, किन्तु जिस किसी ने अच्छा कर्म किया, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री,किन्तु हो वह मोमिन, तो ऐसे लोग जन्नत में प्रवेश करेंगे। वहाँ उन्हें बेहिसाब दिया जाएगा", (सूरह ग़ाफ़िर: ४०)
किसी की खेत खल्यान में बिना समझौता किये आप काम करेंगे, तो आप को कुछ नहीं मिलने वाला है, यदि ज़मींदार को दया आ जाये तो जो कुछ भी वह आप को देगा, वही आप को स्वीकार करना पड़ेगा, अल्लाह दयालु है, वह आप को देगा मगर अपनी मर्ज़ी से, और इसी दुनिया में,
प्रश्न : विधाता ने मानव जाती का निर्माण क्यों किया?
केवल एक ही उद्देश्य है, और वह है एक अल्लाह की इबादत,अल्लाह ने मानव जाती को इस लिए पैदा किया है, ताकि वह उस की पूजा अर्चना और इबादत करें, अल्लाह ने फ़रमाया:
﴿وَمَا خَلَقْتُ الْجِنَّ وَالْإِنسَ إِلَّا لِيَعْبُدُونِ﴾ سورة الذاريات: ٥٦
अर्थ: "मैंने तो जिन्नों और मनुष्यों को केवल इसलिए पैदा किया है कि वे मेरी बन्दगी करे", (सूरह अल-ज़ारियात: ५६)
प्रश्न : यदि मनुष्य को केवल इबादत के लिए पैदा किया गया है, तो खान पान सोना जागना शादी बियाह इत्त्यादि क्यों किया जाता है?
जी हाँ ! प्रश्न उठता है की यदि मनुष्य का निर्माण केवल इबादत के लिए है, तो बहुत से ऐसे कार्य किये जाते हैं जो इबादत नहीं लगते, शादी बियाह, खरीदारी, खान पान इत्त्यादि, और फिर क़ुरआन में अलग अलग उद्देश्य क्यों देखने में आता है, जैसे की:
अल्लाह के संविधान को पृथ्वी में लागु करना:
﴿وَإِذْ قَالَ رَبُّكَ لِلْمَلَائِكَةِ إِنِّي جَاعِلٌ فِي الْأَرْضِ خَلِيفَةً﴾ سورة البقرة: ٣٠
अर्थ: "और याद करो जब तुम्हारे रब ने फरिश्तों से कहा कि "मैं धरती में (मनुष्य को) खलीफ़ा (सत्ताधारी) बनानेवाला हूँ", (सूरह अल-बक़रह: ३०)
लोगों को अच्छे कर्मों के लिए उत्साहित करना, और बुरे कर्मों से रोकना:
﴿كُنتُمْ خَيْرَ أُمَّةٍ أُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ تَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَتَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَرِ﴾ سورة آل عمران: ١١٠
अर्थ: "तुम एक उत्तम समुदाय हो, जो लोगों के समक्ष लाया गया है। तुम नेकी का हुक्म देते हो और बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो", (सूरह आल-इमरान: ११०)
इस का परीक्षा लेना की कौन अच्छा कर्म करता है, और कौन बुरा:
الَّذِي خَلَقَ الْمَوْتَ وَالْحَيَاةَ لِيَبْلُوَكُمْ أَيُّكُمْ أَحْسَنُ عَمَلًا وَهُوَ الْعَزِيزُ الْغَفُورُ ﴿الملك: ٢﴾
अर्थ: "जिसने पैदा किया मृत्यु और जीवन को, ताकि तुम्हारी परीक्षा करे कि तुममें कर्म की दृष्टि से कौन सबसे अच्छा है। वह प्रभुत्वशाली, बड़ा क्षमाशील है", (सूरह अल-मुल्क: २)
तो दरअसल जीवन में जो कुछ किया जाता है, अगर इस्लामी पद्द्ति और इस्लामी विचारधारा अनुसार अंजाम दिए जाएँ तो वह सब कुछ इबादत बन जाते हैं, मन की इच्छाओं को भी अगर इस्लाम के आदेश अनुसार अदा किया गया, तो आदेश पालन किये जाने के कारण अल्लाह राज़ी होगा, और उस कार्य पर नेकी व पुण्य प्रदान करेगा, तो जिस कार्य से अल्लाह राज़ी हो जाये, और नेकी अता करे, उसी का नाम तो इबादत है,
عن سعد بن أبي وقاص رضي الله عنه أن رسول الله صلى الله عليه وسلم قال: "إنك لن تنفق نفقة تبتغي بها وجه الله إلا أجرت عليها حتى ما تجعل في فم امرأتك" (رواه البخاري ومسلم)
अर्थ: हज़रत साद बिन अबी वक़्क़ास (अल्लाह तआला इन से प्रसन्न हो) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) ने कहा: "आप कोई खर्च नहीं करेंगे कि जिस में आप उद्देश्य अल्लाह की प्रसन्नता (इस्लामी विचारधारा) हो, परन्तु उस में आप को नेकी दी जाएगी, यहां तक की अपनी पत्नी के मुंह में जो भोजन डालेंगे उस में भी" (अल-बुखारी, व मुस्लिम)
पत्नी के मुंह में अपने हाथ से एक निवाला खिला देने से दान करने जैसा सवाब मिलता है, इस से भी बढ़ कर जब इस्लामी विचारधारा अनुसार हो तो पत्नी के साथ प्रेम करना भी सवाब का कार्य है,
عن أبي ذر رضي الله عن النبي صلى الله عليه وسلم قال: "وفي بضع أحدكم صدقة قالوا يا رسول الله أيأتي أحدنا شهوته ويكون له فيها أجر قال أرأيتم لو وضعها في حرام أكان عليه فيها وزر فكذلك إذا وضعها في الحلال كان له أجرا" رواه مسلم.
अर्थ: हज़रत अबू ज़र (अल्लाह तआला इन से प्रसन्न हो) अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) से रिवायत करते हैं कि आप ने फ़रमाया: "तुम लोगों के गुप्तांगों (पत्नी के साथ हमबिस्तर होने) में दान करने का सवाब (नेकी) है, उन्होंने कहा: हे अल्लाह के रसूल, हम में से कोई अपनी मन की इच्छा को पूरी करता है, इसमें भी उस के लिए नेकी है? आप ने कहा: तुम्हारा क्या ख्याल है, यदि यही काम हराम (वर्जित) जगह (ग़ैर पत्नी) करता, तो क्या उसे गुनाह (पाप) न मिलता? तो इसी प्रकार जब उस को हलाल (इस्लामी विचारधारा अनुसार) जगह किया, तो उस को नेकी मिली" (इस को मुस्लिम ने रिवायत किया है)
पता चला की ऐसा कार्य जो इस्लाम में वर्जित नहीं है, यदि इस्लामी विचारधारा और पैग़बर के बताये सिद्धांत अनुसार किया जाये तो वह कार्य सवाब का पात्र है, और जिस में सवाब मिले तथा अल्लाह राज़ी हो, वही तो इबादत कहलाता है, अर्थात अगर इस संदर्भ में जीवन यापन किया जाये, तो समस्त जीवन को इबादत ही माना जायेगा,
प्रश्न : अच्छे कर्मों को स्वीकार्य बनाने और उन का मुआवज़ा पाने के लिए क्या करना होगा?
अपने अच्छे कर्मों का फल पाने के लिए अपने निर्माता के साथ एग्रीमेंट (समझौता) करने, अर्थात इस्लाम के दायरा में आने के बाद दो अत्यंत महत्पूर्ण बातों का ध्यान रखना है:
१ - विशुद्ध (इखलास): जो कार्य भी करें, वह एकमात्र अल्लाह को प्रसन्न करने के उद्देश्य से करें, किसी ग़ैर को देखने सुनाने वाहवाही मिलने इत्त्यादि उद्देश्य से कदापि न हो, किसी और उद्देश्य को इस का भागीदार या सरीक न बनने दें, चाहे वह दूसरा उद्देश्य कितना ही अच्छा क्यों न हो, अल्लाह ने फ़रमाया:
﴿وَمَا أُمِرُوا إِلَّا لِيَعْبُدُوا اللَّـهَ مُخْلِصِينَ لَهُ الدِّينَ حُنَفَاءَ وَيُقِيمُوا الصَّلَاةَ وَيُؤْتُوا الزَّكَاةَ وَذَٰلِكَ دِينُ الْقَيِّمَةِ﴾ سورة البينة: ٥
अर्थ: "और उन्हें आदेश भी बस यही दिया गया था कि वे अल्लाह की बन्दगी करे निष्ठा एवं विनयशीलता को उसके लिए विशिष्ट करके, बिलकुल एकाग्र होकर, और नमाज़ की पाबन्दी करें और ज़कात दे। और यही है सत्यवादी समुदाय का धर्म", (सूरह अल-बैयेनह: ५)
२ - पैगंबर के मार्ग पर: वह कार्य अल्लाह के शेष पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के तरीक़ा पर हो, यदि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने किया है, तो आप करें, नहीं किया है, तो न करें, किया है तो किस प्रकार, कितना, और कैसे किया है, उसी प्रकार उतना और वैसे ही करें, अपने मन से कम ज़्यादह आगे पीछे रद्द व बदल कदापि न करें,
﴿قُلْ يَا أَيُّهَا النَّاسُ إِنِّي رَسُولُ اللَّـهِ إِلَيْكُمْ جَمِيعًا الَّذِي لَهُ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ لَا إِلَـٰهَ إِلَّا هُوَ يُحْيِي وَيُمِيتُ فَآمِنُوا بِاللَّـهِ وَرَسُولِهِ النَّبِيِّ الْأُمِّيِّ الَّذِي يُؤْمِنُ بِاللَّـهِ وَكَلِمَاتِهِ وَاتَّبِعُوهُ لَعَلَّكُمْ تَهْتَدُونَ﴾ سورة الأعراف: ١٥٨
अर्थ: "कहो, "ऐ लोगो! मैं तुम सबकी ओर उस अल्लाह का रसूल हूँ, जो आकाशों और धरती के राज्य का स्वामी है उसके सिवा कोई पूज्य नहीं, वही जीवन प्रदान करता और वही मृत्यु देता है। अतः जीवन प्रदान करता और वही मृत्यु देता है। अतः अल्लाह और उसके रसूल, उस उम्मी नबी, पर ईमान लाओ जो स्वयं अल्लाह पर और उसके शब्दों (वाणी) पर ईमान रखता है और उनका अनुसरण करो, ताकि तुम मार्ग पा लो", (सूरह अल-आ'राफ: १५८)
जिन दो बातों पर कोई भी कार्य करने से पूर्व ध्यान केंद्रित रखने की बात कही गई, उन दोनों को एक साथ अल्लाह ने बयान किया:
﴿ فَمَن كَانَ يَرْجُو لِقَاءَ رَبِّهِ فَلْيَعْمَلْ عَمَلًا صَالِحًا وَلَا يُشْرِكْ بِعِبَادَةِ رَبِّهِ أَحَدًا﴾ سورة الكهف: ١١٠
अर्थ: " अतः जो कोई अपने रब से मिलन की आशा रखता हो, उसे चाहिए कि अच्छा कर्म करे और अपने रब की बन्दगी में किसी को साझी न बनाए", (सूरह अल-कहफ़: ११०)
कोई भी कार्य अच्छा (अमल सालेह) हो नहीं सकता, जब तक वह कार्य पैग़ंबर के मार्गदर्शन को पालन करते हुए न किया जाये,और शिर्क से दूर हो, अर्थात खालिस (विशुद्ध) अल्लाह के लिए किया जाये, इन दोनों बातों पर हमेशा ध्यान रहे, नहीं तो जितना बड़ा ही कार्य कर लिया जाये, वह एकर हो जायेगा, अल्लाह ने फ़रमाया:
﴿وَقَدِمْنَا إِلَىٰ مَا عَمِلُوا مِنْ عَمَلٍ فَجَعَلْنَاهُ هَبَاءً مَّنثُورًا﴾ سورة الفرقان: ٢٣
अर्थ: "हम बढ़ेंगे उस कर्म की ओर जो उन्होंने किया होगा और उसे उड़ती धूल कर देंगे", (सूरह अल-फ़ुरक़ान: २३)
अपने ज्ञान में जीवन भर अच्छे कार्यों में लगे रहे, दुनिया से कटे रहे, बड़ा बड़ा काम अंजाम दिया, परन्तु इन दोनों बातों का ध्यान न रखने से उन कार्यों का कोई मूल्य नहीं रहा,
﴿عَامِلَةٌ نَّاصِبَةٌ * تَصْلَىٰ نَارًا حَامِيَةً﴾ سورة الغاشية: 2.٣
अर्थ: "कठिन परिश्रम में पड़े, थके-हारे, दहकती आग में प्रवेश करेंगे", (सूरह अल- ग़ाशियह: २.३)
قال ابن الماجشون: "سمعت مالكا يقول: من ابتدع في الاسلام بدعه يراها حسنه فقد زعم ان محمدا صلى الله عليه وسلم خان الرسالة، لان الله يقول: "اليوم أكملت لكم دينكم" فما لم يكن يومئذ دينا فلا يكون اليوم دينا" (الاعتصام للشاطبى 1/ 49 والإحكام في أصول الأحكام لابن حزم الأندلسي 6 / 791)
अर्थ: "इब्न अल माजिशून ने कहा की मैं ने इमाम मालिक (रहमतुल्लाहि अलैह) को यह कहते हुए सुना की: जिसने इस्लाम में कोई नया कार्य उस को अच्छा समझ कर उत्पन्न किया, तो उस ने मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर पैग़ंबर के कार्यभरी (रिसालत) में गद्दारी का आरोप लगाया, (अल्लाह हमें क्षमा प्रदान करे) इस लिए की अल्लाह कहता है की: "आज (जब रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जीवित थे तभी) ) मैं ने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को पूरा कर दिया", तो जो कार्य उस समय धर्म का भाग नहीं था, वह आज भी धार्मिक कार्य नहीं माना जाएगा", (अल-एअत्साम १/ ४९, अल-एहकाम फि उसूलील अहकाम इब्न हज़म ६/ ७९१)
प्रश्न : आतंक के विषय पर इस्लाम क्या कहता है?
उत्तर : इस्लाम आतंक के विषय में क्या कहता है?! यह स्पष्ट हो जाता है इन क़ुरानी आयतों और हदीसों से, जो की बहुत अधिक में से थोड़े हैं:
पहले पवित्र क़ुरआन से:
قال الله سبحانه: ﴿وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَآنُ قَوْمٍ أَن صَدُّوكُمْ عَنِ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ أَن تَعْتَدُوا وَتَعَاوَنُوا عَلَى الْبِرِّ وَالتَّقْوَىٰ وَلَا تَعَاوَنُوا عَلَى الْإِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَاتَّقُوا اللَّـهَ إِنَّ اللَّـهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ﴾ سورة المائدة: ٢
अर्थ: अल्लाह सुबहानहु ने फ़रमाया: "और ऐसा न हो कि एक गिरोह की शत्रुता, जिसने तुम्हारे लिए प्रतिष्ठित घर का रास्ता बन्द कर दिया था, तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम ज़्यादती करने लगो। हक़ अदा करने और ईश-भय के काम में तुम एक-दूसरे का सहयोग करो और हक़ मारने और ज़्यादती के काम में एक-दूसरे का सहयोग न करो। अल्लाह का डर रखो; निश्चय ही अल्लाह बड़ा कठोर दंड देनेवाला है", (सूरह अल-माइदह: 2)
قال الله سبحانه: ﴿يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُونُوا قَوَّامِينَ لِلَّـهِ شُهَدَاءَ بِالْقِسْطِ وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَآنُ قَوْمٍ عَلَىٰ أَلَّا تَعْدِلُوا اعْدِلُوا هُوَ أَقْرَبُ لِلتَّقْوَىٰ وَاتَّقُوا اللَّـهَ إِنَّ اللَّـهَ خَبِيرٌ بِمَا تَعْمَلُونَ﴾ سورة المائدة: ٨
अर्थ: अल्लाह सुबहानहु ने फ़रमाया: "ऐ ईमान लेनेवालो! अल्लाह के लिए खूब उठनेवाले, इनसाफ़ की निगरानी करनेवाले बनो और ऐसा न हो कि किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम इनसाफ़ करना छोड़ दो। इनसाफ़ करो, यही धर्मपरायणता से अधिक निकट है। अल्लाह का डर रखो, निश्चय ही जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को उसकी ख़बर हैं", (सूरह अल-माइदह: 8)
قال الله سبحانه: ﴿مِنْ أَجْلِ ذَٰلِكَ كَتَبْنَا عَلَىٰ بَنِي إِسْرَائِيلَ أَنَّهُ مَن قَتَلَ نَفْسًا بِغَيْرِ نَفْسٍ أَوْ فَسَادٍ فِي الْأَرْضِ فَكَأَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِيعًا وَمَنْ أَحْيَاهَا فَكَأَنَّمَا أَحْيَا النَّاسَ جَمِيعًا وَلَقَدْ جَاءَتْهُمْ رُسُلُنَا بِالْبَيِّنَاتِ ثُمَّ إِنَّ كَثِيرًا مِّنْهُم بَعْدَ ذَٰلِكَ فِي الْأَرْضِ لَمُسْرِفُونَ﴾ سورة المائدة: ٣٢
अर्थ: अल्लाह सुबहानहु ने फ़रमाया: "इसी कारण हमने इसराईल का सन्तान के लिए लिख दिया था कि जिसने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इनसानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इनसानों को जीवन दान किया। उसने पास हमारे रसूल स्पष्टि प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत-से लोग धरती में ज़्यादतियाँ करनेवाले ही हैं", (सूरह अल-माइदह: ३2)
قال الله سبحانه: ﴿إِنَّمَا جَزَاءُ الَّذِينَ يُحَارِبُونَ اللَّـهَ وَرَسُولَهُ وَيَسْعَوْنَ فِي الْأَرْضِ فَسَادًا أَن يُقَتَّلُوا أَوْ يُصَلَّبُوا أَوْ تُقَطَّعَ أَيْدِيهِمْ وَأَرْجُلُهُم مِّنْ خِلَافٍ أَوْ يُنفَوْا مِنَ الْأَرْضِ ذَٰلِكَ لَهُمْ خِزْيٌ فِي الدُّنْيَا وَلَهُمْ فِي الْآخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٌ﴾ سورة المائدة: ٣٣
अर्थ: अल्लाह सुबहानहु ने फ़रमाया: "जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते है और धरती के लिए बिगाड़ पैदा करने के लिए दौड़-धूप करते है, उनका बदला तो बस यही है कि बुरी तरह से क़त्ल किए जाए या सूली पर चढ़ाए जाएँ या उनके हाथ-पाँव विपरीत दिशाओं में काट डाले जाएँ या उन्हें देश से निष्कासित कर दिया जाए। यह अपमान और तिरस्कार उनके लिए दुनिया में है और आख़िरत में उनके लिए बड़ी यातना है", (सूरह अल-माइदह: ३३)
قال الله سبحانه: ﴿وَلَا تَقْتُلُوا النَّفْسَ الَّتِي حَرَّمَ اللَّـهُ إِلَّا بِالْحَقِّ وَمَن قُتِلَ مَظْلُومًا فَقَدْ جَعَلْنَا لِوَلِيِّهِ سُلْطَانًا فَلَا يُسْرِف فِّي الْقَتْلِ إِنَّهُ كَانَ مَنصُورًا﴾ سورة الإسراء: ٣٣
अर्थ: अल्लाह सुबहानहु ने फ़रमाया: "किसी जीव की हत्या न करो, जिसे (मारना) अल्लाह ने हराम ठहराया है। यह और बात है कि हक़ (न्याय) का तक़ाज़ा यही हो। और जिसकी अन्यायपूर्वक हत्या की गई हो, उसके उत्तराधिकारी को हमने अधिकार दिया है (कि वह हत्यारे से बदला ले सकता है), किन्तु वह हत्या के विषय में सीमा का उल्लंघन न करे। निश्चय ही उसकी सहायता की जाएगी", (सूरह अल-इस्रा: ३2)
قال الله سبحانه: ﴿لَّا يَنْهَاكُمُ اللَّـهُ عَنِ الَّذِينَ لَمْ يُقَاتِلُوكُمْ فِي الدِّينِ وَلَمْ يُخْرِجُوكُم مِّن دِيَارِكُمْ أَن تَبَرُّوهُمْ وَتُقْسِطُوا إِلَيْهِمْ إِنَّ اللَّـهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِينَ﴾ سورة الممتحنة: ٨
अर्थ: अल्लाह सुबहानहु ने फ़रमाया: "अल्लाह तुम्हें इससे नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और न तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला। निस्संदेह अल्लाह न्याय करनेवालों को पसन्द करता है", (सूरह अल-मुमतहनह: 8)
और अब पवित्र हदीस से:
عن عامر بن ربيعة رضي الله عنه أن رجلًا أخذ نعلَ رجل فغيبها – أي أخفاها – وهو يمزح، فذكر ذلك لرسول الله صلى الله عليه وسلم فقال: "لا تروِّعوا المسلم، فإن روعة المسلم ظلم عظيم" (البزار والطبراني وغيرهما، انظر الترغيب والترهيب رقم: 4129)
अर्थ: हज़रत आमिर बिन रबी'अह (अल्लाह इन से प्रसन्न हो) से रवायत है की एक वयक्ति ने दूसरे का जूता मज़ाक करते हुए कहीं छिपा दिया, जब अल्लाह के रसूल (आप पर अल्लाह का दरूद व सलाम हो) को यह बात बताई गयी, तो आप ने फ़रमाया: किसी मुस्लिम को आतंकित न करो, किसी को आतंकित करना महान अन्याय है, (इस को मुसनद बज़्ज़ार और तबरानी इत्त्यादि ने रिवायत किया है, देखिये: अल-तरग़ीब व अल-तरहीब ४१२९ (
قال رسول الله صلى الله عليه وسلم: "لا يحل لمسلم أن يروع مسلمًا" (أبو داود 5004، وأحمد 5 / 362 ، والبيهقي 10 / 249 )
अर्थ: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) ने फ़रमाया: किसी मुस्लिम को डराने के लिए किसी मुस्लिम को अनुमति नहीं है "(अबू दाऊद ५००४, अहमद 5/३६२, अल-बैहक़ी १०/ २४९)
قال رسول الله صلى الله عليه وسلم: "من نظر إلى مسلم نظرة يخيفه فيها بغير حق أخافه الله تعالى يوم القيامة" (الطبراني انظر: كنز الدقائق 43711)
अर्थ: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) ने फ़रमाया: "जो कोई किसी भी मुस्लिम को ऐसे तरीके से देखता है जिससे वह उसे डराता है, अल्लाह उसे न्याय के दिन डराएंगे" (अल-तबरानी, देखें: कंज अल-दकाइक ४३७११)
قال رسول الله صلى الله عليه وسلم: "من أشار إلى أخيه بحديدة، فإن الملائكة تلعنه حتى ينتهي، وإن كان أخاه لأبيه وأمه" (صحيح مسلم 2616)
अर्थ: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) ने फ़रमाया: "जो वयक्ति अपने भाई को लोहा देखा कर इशारा करे, फ़रिश्ते (ईश्वरदूत) उसे तब तक शाप देते हैं जब तक कि वह (इशारा) समाप्त नहीं होता, भले ही वह उसका (सगा) भाई हो" (सहिह मुस्लिम २६१६)
قال رسول الله صلى الله عليه وسلم: "لا يشير أحدكم إلى أخيه بالسلاح، فإنه لا يدري لعل الشيطان ينزع في يده، فيقع في حفرة من النار" (البخاري 7072، ومسلم 2617)
अर्थ: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) ने फ़रमाया: "आप में से कोई भी अपने भाई को हथियार के साथ संदर्भित न करे, वह नहीं जानता, हो सकता है कि शैतान उस को अपने हाथ में खिंच ले, और वह आग के गड्ढे (जहन्नम) में गिर पड़े" (अल-बुखारी ७०७२, मुस्लिम २६१७)
وقال الرسول صلى الله عليه وسلم: "من قتل معاهدًا لم يرح رائحة الجنة" (البخاري 3166)
अर्थ: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) ने फ़रमाया: "जो किसी मुआहिद (इस्लामी हकूमत में रहने वाला ग़ैर मुस्लिम) की हत्या करेगा, वह स्वर्ग की खुशबू तक नहीं पायेगा" (अल-बुखारी ३१६६)
وقال صلى الله عليه وسلم: "لا يزال المؤمن في فسحة من دينه ما لم يصب دمًا حرامًا" (البخاري 6862، وأحمد 2 / 94)
अर्थ: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) ने फ़रमाया: "आस्तिक (मोमिन) उस समय तक अपने धर्म के विस्तार में है, जब तक कि वह किसी निषिद्ध रक्त के अधीन न हो।" (अल-बुखारी ६८६२, अहमद २/ ९४)
وقال صلى الله عليه وسلم: "لا يحل دم امرئ مسلم يشهد أن لا إله إلا الله وأني رسول الله إلا بإحدى ثلاث: الثيب الزاني، والنفس بالنفس، والتارك لدينه المفارق للجماعة" (البخاري 6878، ومسلم 1676)
अर्थ: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) ने फ़रमाया: "किसी भी मुस्लिम व्यक्ति का खून (बहाना) हलाल नहीं है। जो यह गवाही देता हो कि कोई भी ईश्वर नहीं एक अल्लाह को छोड़ कर, और यह की मैं अल्लाह का मैसेंजर हूं, परन्तु तीन में से कोई एक कार्य कर लेने पर, शादीशुदा जानी (जिसकी एक बार शादी हो चुकी है, उस का किसी महिला के साथ बिना बियाह रचाये सम्भोग करना) और आत्म के बदले आत्मा (खून के बदले खून) और जो अपने धर्म को त्याग देता है, और समुदाय में फुट डालता है" (अल-बुखारी ६८७८, मुस्लिम १६७६)
अब आप समझ गए हँगे, की इस्लाम आतंक के विषय में क्या कहता है, इस्लाम तो किसी का जूता छिपा कर डरने से रोकता है,किसी की तरफ लोहा देखा कर उसे आतंकित करने से रोकता है, यहां तक की मज़ाक में भी किसी को डरने की अनुमति नहीं देता है,
प्रश्न : क्या इस्लाम नारी कल्याण के विपरीत उन को बंदी बनाने का समर्थन करता है?
उत्तर : इस्लाम ऐसे ऐसे समय से गुज़रा है, जिनकी याद से बदन सहर उठता है, सिसकती मानवता, अधिकारों के हनन, एवं डूबती संस्कारों के अंधकार में इस्लाम ने हमेशा जोत जलाने का काम किया है, छठी शताब्दी मानवता को लज्जित व शर्मसार करने वाला काल मन जाता है, साल ५७१ में खाड़ी के बहु चर्चित शहर "मक्कह" में पैग़ंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) पैदा हुए,
उस समय खाड़ी की स्थिति मानवता, संस्कार, राजनीति, अर्थव्यवस्था, सभ्यता इत्त्यादि हर एक प्रकार से बिलकुल विनाश के आखरी छोर पर थी, उस समय महिलाओं के अधिकार तो दूर, महिला को इंसान ही नहीं समझा जाता था, लड़कियों के जन्म लेने से घर में दुःख का आलम होता, उन की शिशुहत्या की जाती, कभी तो घृणा इस चरण को पहुंच जाता की जन्म लेते ही उस को जीवित ज़मीन में गाड़ दिया जाता, अल्लाह ने क़ुरआन में उन की हालत बयान की है:
﴿وَإِذَا بُشِّرَ أَحَدُهُم بِالْأُنثَىٰ ظَلَّ وَجْهُهُ مُسْوَدًّا وَهُوَ كَظِيمٌ﴿٥٨﴾ يَتَوَارَىٰ مِنَ الْقَوْمِ مِن سُوءِ مَا بُشِّرَ بِهِ ۚ أَيُمْسِكُهُ عَلَىٰ هُونٍ أَمْ يَدُسُّهُ فِي التُّرَابِ ۗ أَلَا سَاءَ مَا يَحْكُمُونَ﴾ سورة النحل: ٥٩
अर्थ: "और जब उनमें से किसी को बेटी की शुभ सूचना मिलती है तो उसके चहरे पर कलौंस छा जाती है और वह घुटा-घुटा रहता है (58) जो शुभ सूचना उसे दी गई वह (उसकी दृष्टि में) ऐसी बुराई की बात हुई जो उसके कारण वह लोगों से छिपता फिरता है कि अपमान सहन करके उसे रहने दे या उसे मिट्टी में दबा दे। देखो, कितना बुरा फ़ैसला है जो वे करते है", (सूरह अल-नहल: ५९)
قال عمر بن الخطاب: "كنا في الجاهلية لا نعد النساء شيئا، فلما جاء الإسلام وذكرهن الله رأينا لهن بذلك حقا" رواه البخاري
अर्थ: हज़रत उमर बिन खत्ताब (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने फ़रमाया: "हम अधर्मी काल (जाहेलियत) में महिलाओं को कुछ भी गिनती में नहीं रखते थे, फिर जब इस्लाम आया, और अल्लाह ने उन का ज़िक्र किया, तो hm ने देखा की उस में उन का बहुत बड़ा अधिकार है" (सहीह बुखारी)
समाज में फैले जन्म लेने वाली लड़कियों से घृणा जैसे कुप्रथा का विरोध किया, और लड़की जन्म लेने को भाग्यशाली होना बताया, बल्कि सुवर्ग में पैग़ंबर के साथ होने का कारण बताया:
عن عقبة بن عامر رضي الله عنه قال: سمعت رسول الله صلى الله عليه وسلم يقول: "من كان له ثلاث بنات، فصبر عليهن وأطعمهن وسقاهن وكساهن من جدته، كن له حجابا من النار يوم القيامة" (رواه ابن ماجه وأحمد، وصححه الألباني)
अर्थ: हज़रत उक़बह बिन आमिर (अल्लाह तआला इन से प्रसन्न हो) ने कहा की: मैंने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) को फरमाते हुए सुना की: "जिसकी तीन बेटियां हों, और वह उन के साथ धैर्य रखे, और अपनी योग्यता अनुसार उन्हें खिलाए पिलाए, और उन्हें वस्त्र (शारीर एवं आत्म सम्मान का) प्रदान करे, तो न्याय दिवस में यह बच्चियां उस के लिए नर्क की आग (जहन्नम) से बचने का सुरक्षा कवच बनेंगी" (इब्न माजह, व अहमद, शैख़ अल्बानी ने इस को प्रमाणित और सहीह कहा)
عن عائشة رضي الله عنها قالت: أن النبي صلى الله عليه وسلم قال: "من ابتلي من هذه البنات بشيء كن له سترا من النار" (رواه البخاري ومسلم)
अर्थ: हज़रत आईशह (अल्लाह तआला इन से प्रसन्न हो) अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) से रिवायत करती हैं की:"जो व्यक्ति पुत्रियों (एक हो या अधिक) द्वारा परीक्षा में डाला गया, वह उस के नर्क से बचने का कवच बनेंगी" (बुखारी व मुस्लिम)
अर्थात: पुत्री के परीक्षा का कारण बनने का यह अर्थ नहीं है की सोयं वह कोई मुसीबत है, बल्कि उस का अर्थ यह है की उस पूरी के कारण समाज से जो कुछ उस को सहन करना पड़ रहा है, वह परीक्षा है, एक तरफ उस के प्रति समाज के रवैया से पुत्री का डूबता हुआ नन्हा सा दिल, तो दूसरी तरफ समाज के सामने अपना सर न उठा पाना, यह सब परीक्षा से क्या कम है,
एकमात्र पुत्री ही नहीं, बल्कि नारी के साथ रिश्ता जो भी हो, घर में उस का जन्म लेना उस घर के लिए भाग्यशाली का पात्र है:
عن أنس رضي الله عنه أن النبي صلى الله عليه وسلم قال: "مَن عال ابنتينِ أو ثلاثًا، أو أختينِ أو ثلاثًا، حتَّى يَبِنَّ (ينفصلن عنه بتزويج أو موت) أو يموتَ عنهنَّ كُنْتُ أنا وهو في الجنَّةِ كهاتينِ وأشار بأُصبُعِه الوسطى والَّتي تليها" (رواه ابن ماجه وصححه الألباني)
अर्थ: हज़रत अनस (अल्लाह तआला इन से प्रसन्न हो) अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) से रिवायत करते हैं की:"जो व्यक्ति दो या तीन पुत्रियों अथवा दो या तीन बहनों की पालन पोषण का कार्यभार संभालता है, जब तक वह इस से अलग न हो जाएँ, (विवाह कर के उस से अलग हो जाएँ, अथवा मृत्यु हो कर दूर हो जाएँ) या उन के रहते हुए सोयं इसी की मृत्यु हो जाये,तो वह और मैं सुवर्ग में इस प्रकार हँगे, फिर आप ने बिच की ऊँगली or उस के साथ वाली ऊँगली से इशारा किया, (इब्न माजह,शैख़ अल्बानी ने इस को सहीह कहा(
अर्थात: हाथ के बिच की ऊँगली और उस के साथ वाली ऊँगली दोनों को एक साथ मिला कर इशारा किया, की मैं और वह सुवर्ग में ऐसे ही निकटतम हँगे जैसे यह दोनों उँगलियाँ मिली हुई हैं,
عن ابن عباس رضي الله عنه قال: قال رسول الله صلى الله عليه وسلم: "من ولدت له أنثى فلم يئدها ولم يهنها ولم يؤثر ولده عليها -أي الذكور - أدخله الله الجنة" (أخرجه الحاكم وصححه ووافقه الذهبي، ورواه أبو داود وأحمد وابن أبي شيبة والبيهقي في شعب الإيمان، وابن أبي الدنيا في كتاب العيال)
अर्थ: हज़रत इब्न अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा की: अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) ने फ़रमाया: "जिसके यहाँ नारी शिशु ने जन्म लिया, और उस ने उस को ज़मीन में नहीं गाड़ा (उस की हत्या नहीं की) और न उस का अपमान किया,न ही इस को अपने लड़कों से कमतर समझा, तो अल्लाह उस को सुवर्ग में अवश्य प्रवेश कराएंगे" (अबू दाऊद, अहमद, बैहक़ी,हाकिम इत्त्यादि)
इसी प्रकार से इस्लाम ने आज से साढ़े चौदह सौ वर्ष पूर्व नारी हत्याओं के विरुद्ध अभ्यान छेड़ा, और उस के पक्ष में खड़ा हो कर उस का बचाव किया, इस को दंडनीय अपराध माना, और न्याय दिवस में उन के लिए कठोर सज़ा का प्रावधान रखा,
وَلَا تَقْتُلُوا أَوْلَادَكُمْ خَشْيَةَ إِمْلَاقٍ نَّحْنُ نَرْزُقُهُمْ وَإِيَّاكُمْ إِنَّ قَتْلَهُمْ كَانَ خِطْئًا كَبِيرًا﴿الإسراء: ٣١﴾
अर्थ: "और निर्धनता के भय से अपनी सन्तान की हत्या न करो, हम उन्हें भी रोज़ी देंगे और तुम्हें भी। वास्तव में उनकी हत्या बहुत ही बड़ा अपराध है", (सूरह अल-इस्रा: ३१)
﴿وَإِذَا الْمَوْءُودَةُ سُئِلَتْ * بِأَيِّ ذَنبٍ قُتِلَتْ﴾ سورة التكوير: 8. 9
अर्थ: "और जब जीवित गाड़ी गई लड़की से पूछा जाएगा, कि उसकी हत्या किस गुनाह के कारण की गई", (सूरह अल-तकवीर: ८. ९)
उस के अच्छे पालन पोषण और पढ़ाई लिखे अच्छा संस्कार फिर अच्छे घर में शादी कर के विदाई करने पर अच्छा बदला देने का वचन दिया:
عن أبي سعيد الخدري قال قال رسول الله صلى الله عليه وسلم: "من عال ثلاث بنات فأدبهن وزوجهن وأحسن إليهن فله الجنة" (أخرجه أبو داوود)
अर्थ: हज़रत इब्न अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा की: अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) ने फ़रमाया: "जिसने तीन बेटियों का कार्यभार संभाला, उन को अच्छे संस्कार दिया, उन की शादी कराइ, और उन के साथ अच्छा वेवहार किया, तो उस के लिए जन्नत है" (अबू दाऊद)
उन की शादी में अपनी मर्जी को महत्व दिया, महर के पैसे पर मात्र उन्ही को अधिकार दिया, पत्नी के रूप में उन के साथ अच्छा बर्ताव करने का हुक्म दिया, कार्यप्रणाली अलग अलग रखी, गर्जन मर्द को बनाया, घर के बाहर पती जबकि घर के अंदर पत्नी को ज़िम्मेदार बनाया, परन्तु पति व पत्नी में समानता रखी:
﴿وَآتُوا النِّسَاءَ صَدُقَاتِهِنَّ نِحْلَةً فَإِن طِبْنَ لَكُمْ عَن شَيْءٍ مِّنْهُ نَفْسًا فَكُلُوهُ هَنِيئًا مَّرِيئًا﴾ سورة النساء: ٤
अर्थ: "और स्त्रियों को उनके मह्रा ख़ुशी से अदा करो। हाँ, यदि वे अपनी ख़ुशी से उसमें से तुम्हारे लिए छोड़ दे तो उसे तुम अच्छा और पाक समझकर खाओ", (सूरह अल-निसा: ४)
नारी व पुरुष में समानताएं लोगों के मन से नहीं, बल्कि प्राकृतिक प्रकार से रखा, ताकि नारी के सम्मान अथवा अधिकार का हनन न हो, उस के भावनात्मक स्वभाव, शारीरिक संरचना, धैर्य और सभी प्रकार की क्षमता के अनुकूल जिम्मेदारी दी, इस प्रकार से परुष को नारी पर एक स्टेप ऊँचा रखा, ताकि नारी की ज़िम्मेदारी भी परुष पर ही तय हो, यह उस का स्थान घटना अथवा असमानता नहीं, बल्कि वास्तव में नारी पर इस्लाम का उपकार है:
﴿وَلَهُنَّ مِثْلُ الَّذِي عَلَيْهِنَّ بِالْمَعْرُوفِ وَلِلرِّجَالِ عَلَيْهِنَّ دَرَجَةٌ وَاللَّـهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ﴾ سورة البقرة: ٢٢٨
अर्थ: "और उन पत्नियों के भी सामान्य नियम के अनुसार वैसे ही अधिकार हैं, जैसी उन पर ज़िम्मेदारियाँ डाली गई है। और पतियों को उनपर एक दर्जा प्राप्त है। अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है", (सूरह अल-बक़रह: २२८)
पुरुष की तरह ही नारी को भी रिश्तेदारों की जायदाद में भागीदार बनाया, और चूँकि विवाह से पूर्व पिता या भाई (वली) की ज़िम्मेदारी और संरक्षण में होती है, जिस का पूरा खर्च का ज़िम्मेदार उस का वली होता है, और विवाह के बाद पति उसके सभी प्रकार का ज़िम्मेदार होता है, जब की परुष सोयं अपना और पत्नी का भी ज़िम्मेदार होता है, इस लिए दोनों की भागीदारी में थोड़ा सा अंतर् रखा, इस लिए भी की लड़की पर लड़का के विपरीत पालन पोषण और विवाह में बहुत अधिक खर्च होते हैं, इसलिए इस अंतर को ध्यान में रखा:
﴿لِّلرِّجَالِ نَصِيبٌ مِّمَّا تَرَكَ الْوَالِدَانِ وَالْأَقْرَبُونَ وَلِلنِّسَاءِ نَصِيبٌ مِّمَّا تَرَكَ الْوَالِدَانِ وَالْأَقْرَبُونَ مِمَّا قَلَّ مِنْهُ أَوْ كَثُرَ نَصِيبًا مَّفْرُوضًا﴾ سورة النساء: ٧
अर्थ: "पुरुषों का उस माल में एक हिस्सा है जो माँ-बाप और नातेदारों ने छोड़ा हो; और स्त्रियों का भी उस माल में एक हिस्सा है जो माल माँ-बाप और नातेदारों ने छोड़ा हो - चाह वह थोड़ा हो या अधिक हो - यह हिस्सा निश्चित किया हुआ है", (सूरह अल-निसा: 7)
अल्लाह ने अपनी पूजा अर्चना और शिर्क से बचाव के बाद सब से महत्पूर्ण माता पिता की सेवा को बताया, माता के अनुरूप नारी को इस्लाम ने सम्मानजनक स्थान दिलाया, उस के साथ अच्छा व्यवहार को अनिवार्य किया, उस की किसी बात पर उफ़ करने या ऊँची आवाज़ से बोलने को वर्जित कहा,
﴿وَقَضَىٰ رَبُّكَ أَلَّا تَعْبُدُوا إِلَّا إِيَّاهُ وَبِالْوَالِدَيْنِ إِحْسَانًا ۚ إِمَّا يَبْلُغَنَّ عِندَكَ الْكِبَرَ أَحَدُهُمَا أَوْ كِلَاهُمَا فَلَا تَقُل لَّهُمَا أُفٍّ وَلَا تَنْهَرْهُمَا وَقُل لَّهُمَا قَوْلًا كَرِيمًا * وَاخْفِضْ لَهُمَا جَنَاحَ الذُّلِّ مِنَ الرَّحْمَةِ وَقُل رَّبِّ ارْحَمْهُمَا كَمَا رَبَّيَانِي صَغِيرًا﴾ سورة الاسراء: 23، 24
अर्थ: "तुम्हारे रब ने फ़ैसला कर दिया है कि उसके सिवा किसी की बन्दगी न करो और माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो। यदि उनमें से कोई एक या दोनों ही तुम्हारे सामने बुढ़ापे को पहुँच जाएँ तो उन्हें 'उँह' तक न कहो और न उन्हें झिझको, बल्कि उनसे शिष्टतापूर्वक बात करो (23)और उनके आगे दयालुता से नम्रता की भुजाएँ बिछाए रखो और कहो, "मेरे रब! जिस प्रकार उन्होंने बालकाल में मुझे पाला है, तू भी उनपर दया कर", (सूरह अल-इस्रा: २३. २४)
उस समय की नारी किसी वस्तु की तरह जायदाद के बटवारे में किसी एक के भाग में दी जाती थी, अगर वो धन दौलत वाली होती तो वह उसकी जायदाद पर अपना क़ब्ज़ा रखने के लिए उस को कहीं शादी बियाह करने न देते, न सोयं उस से बियाह करते, और पत्नियों को न तलाक़ देते और न साथ रखते, बहुतों प्रकार से उस पर अत्त्याचार करते, इस्लाम ने कड़े रुख अपनाते हुए नारी को उस समय मुक्ति दिलाई:
﴿يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا يَحِلُّ لَكُمْ أَن تَرِثُوا النِّسَاءَ كَرْهًا وَلَا تَعْضُلُوهُنَّ لِتَذْهَبُوا بِبَعْضِ مَا آتَيْتُمُوهُنَّ إِلَّا أَن يَأْتِينَ بِفَاحِشَةٍ مُّبَيِّنَةٍ وَعَاشِرُوهُنَّ بِالْمَعْرُوفِ فَإِن كَرِهْتُمُوهُنَّ فَعَسَىٰ أَن تَكْرَهُوا شَيْئًا وَيَجْعَلَ اللَّـهُ فِيهِ خَيْرًا كَثِيرًا﴾ سورة النساء: ١٩
अर्थ: "ऐ ईमान लानेवालो! तुम्हारे लिए वैध नहीं कि स्त्रियों के माल के ज़बरदस्ती वारिस बन बैठो, और न यह वैध है कि उन्हें इसलिए रोको और तंग करो कि जो कुछ तुमने उन्हें दिया है, उसमें से कुछ ले उड़ो। परन्तु यदि वे खुले रूप में अशिष्ट कर्म कर बैठे तो दूसरी बात है। और उनके साथ भले तरीक़े से रहो-सहो। फिर यदि वे तुम्हें पसन्द न हों, तो सम्भव है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो और अल्लाह उसमें बहुत कुछ भलाई रख दे", (सूरह अल-निसा: 19)
इस्लाम ने पवित्र जिहाद और हज्ज में जाने से अधिक महत्व माता की सेवा को दिया, और माता के क़दमों के निचे जन्नत बताया:
عن معاوية بن جاهمة أنَّ جاهمةَ جاءَ إلى النبيِّ صلَّى اللهُ عليهِ وسلَّمَ فقال: يا رسولَ اللهِ! أردتُ أن أَغْزُوَ وقد جئتُ أستشيرُكَ، فقال: "هل لكَ من أُمٍّ؟ قال نعم! قال: فالْزَمْهَا فإنَّ الجنةَ تحتَ رجلَيها" (أخرجه النسائي، وحسنه الألباني إرواء الغليل 5 / 21)
अर्थ: "मुआवियह बिन जाहिमह से रिवायत है की जाहिमह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म के पास आए तो कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! मैं जिहाद में भाग लेना चाहता हूँ, और इस के लिए आप से राय परामर्श करने आया हूँ, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म ने उन से पूछा: क्या तुम्हारी माता (जीवित) हैं? तो उन्हों ने कहा: हाँ! आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म ने फ़रमाया: उन्ही के साथ अच्छा वयवहार करना अपने ऊपर अनिवार्य कर लो, क्योंकि उन के ही दोनों पैरों के निचे जन्नत (सुवर्ग) है", (नसाई,शैख़ अल्बानी ने इस को हसन कहा है)
इस्लाम ने नारी के मृत्यु के बाद भी उसकी कब्र की जियारत, उस के लिए दुआ व प्रार्थना, उस की ओर से दान करना, उस की सहेलियों के साथ अच्छा करना, इत्त्यादि का हुक्म दिया है, जिस अंधकार में नारी एक प्रयोग की जाने वाली वस्तु मात्र थी, उस समय नारी को इस प्रकार के अधिकार इस्लाम ने दिए हैं,
प्रश्न : क्या एकतरफा पति को तलाक़ का अधिकार देना पत्नी के अधिकारों का हनन नहीं है?
अक़्द निकाह इस्लाम में एक निजी समझौता है, जो लड़का लड़की दोनों की एकदूसरे को पसंद और ख़ुशी से संपन्न होता है,और यह जीवन की प्रकृति है, पुरुष नारी के लिए, और नारी परुष के लिए बनाये गए हैं, बाबा आदम को जन्नत में भी संपूर्ण संतुश्टि उस समय मिली, जब उन के लिए माता हव्वा (ईव) को सृश्ट किया गया, अल्लाह ने फ़रमाया:
﴿هُوَ الَّذِي خَلَقَكُم مِّن نَّفْسٍ وَاحِدَةٍ وَجَعَلَ مِنْهَا زَوْجَهَا لِيَسْكُنَ إِلَيْهَا فَلَمَّا تَغَشَّاهَا حَمَلَتْ حَمْلًا خَفِيفًا فَمَرَّتْ بِهِ فَلَمَّا أَثْقَلَت دَّعَوَا اللَّـهَ رَبَّهُمَا لَئِنْ آتَيْتَنَا صَالِحًا لَّنَكُونَنَّ مِنَ الشَّاكِرِينَ﴾ سورة الأعراف: ١٨٩
अर्थ: "वही है जिसने तुम्हें अकेली जान पैदा किया और उसी की जाति से उसका जोड़ा बनाया, ताकि उसकी ओर प्रवृत्त होकर शान्ति और चैन प्राप्त करे। फिर जब उसने उसको ढाँक लिया तो उसने एक हल्का-सा बोझ उठा लिया; फिर वह उसे लिए हुए चलती-फिरती रही, फिर जब वह बोझिल हो गई तो दोनों ने अल्लाह - अपने रब को पुकारा, "यदि तूने हमें भला-चंगा बच्चा दिया, तो निश्चय ही हम तेरे कृतज्ञ होंगे", (सूरह अल-आराफ़: १८९)
पुरुष अर्ध और दूसरा अर्ध नारी है, नारी के बिना पृथ्वी में पुरुष की जीवन जीवन नहीं है, पति पत्नी के रूप में पुरुष व महिला एकदूजे से प्रेम आदर अथवा आराम प्राप्त करते हैं, पुरुष के ज़िम्मे सभी कठोर कार्य मिले हैं, और उसे ही आराम की अधिक आवयश्कता है, और उसे मिलता भी है:
﴿وَمِنْ آيَاتِهِ أَنْ خَلَقَ لَكُم مِّنْ أَنفُسِكُمْ أَزْوَاجًا لِّتَسْكُنُوا إِلَيْهَا وَجَعَلَ بَيْنَكُم مَّوَدَّةً وَرَحْمَةً إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَآيَاتٍ لِّقَوْمٍ يَتَفَكَّرُونَ﴾ سورة الروم: ٢١
अर्थ: "और यह भी उसकी निशानियों में से है कि उसने तुम्हारी ही सहजाति से तुम्हारे लिए जोड़े पैदा किए, ताकि तुम उसके पास शान्ति प्राप्त करो। और उसने तुम्हारे बीच प्रेंम और दयालुता पैदा की। और निश्चय ही इसमें बहुत-सी निशानियाँ है उन लोगों के लिए जो सोच-विचार करते है", (सूरह अल-रूम: २१)
परन्तु अगर उन दोनों में किसी भी कारण से साथ निभाना असंभव हो जाये, हर प्रयास विफल हो जाये, तो अलग होने का प्रावधान होना चाहिए, नहीं तो उन का जीवन नर्क बन जायेगा, आत्महत्या अथवा हत्या का कारण बन सकता है, इस लिए ऐसे नर्क से स्वतंत्र और आज़ादी के लिए "तलाक़" एक उपाय मात्र है, इस के बाद भी यह इस्लाम में वैध कार्यों में सब से नापसंदीदा कार्य है, जिस प्रकार मुजरिम को सज़ा देना जुर्म की रोक थम के लिए न चाहते हुए भी करना पड़ता है, इसी प्रकार हत्या व आत्महत्या से बचाव के लिए न चाहते हुए भी "तलाक़" को वैध रखा गया,
عن ابن عمر رضي الله عنهما عن النبي صلى الله عليه وسلم قال: "أبغض الحلال إلى الله عز وجل الطلاق" (أخرجه أبو داوود وابن ماجة ضعفه بعض العلماءخلافا للجنة الدائمة)
अर्थ: "हज़रत इब्न उमर (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) से रिवायत करते हैं की आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) ने फ़रमाया: अल्लाह के निकट वैध कार्यों में सबसे ना पसंदीदा कार्य "तलाक़" है" (अबू दाऊद, इब्न माजह, कुछ उलेमा ने इस रिवायत को ज़ईफ़ (अप्रमाणित) घोसित किया है)
तलाक़ के दौरान भी बिच बचाव के अवसर रखे गए हैं, क्यों की विवाह और उस की कामयाबी अल्लाह की मंशा है, जबकि तलाक़ उसके विपरीत है:
﴿الطَّلَاقُ مَرَّتَانِ فَإِمْسَاكٌ بِمَعْرُوفٍ أَوْ تَسْرِيحٌ بِإِحْسَانٍ وَلَا يَحِلُّ لَكُمْ أَن تَأْخُذُوا مِمَّا آتَيْتُمُوهُنَّ شَيْئًا إِلَّا أَن يَخَافَا أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ اللَّـهِ فَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ اللَّـهِ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِمَا فِيمَا افْتَدَتْ بِهِ تِلْكَ حُدُودُ اللَّـهِ فَلَا تَعْتَدُوهَا وَمَن يَتَعَدَّ حُدُودَ اللَّـهِ فَأُولَـٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ﴾ سورة البقرة: ٢٢٩
अर्थ: "तलाक़ दो बार है। फिर सामान्य नियम के अनुसार (स्त्री को) रोक लिया जाए या भले तरीक़े से विदा कर दिया जाए। और तुम्हारे लिए वैध नहीं है कि जो कुछ तुम उन्हें दे चुके हो, उसमें से कुछ ले लो, सिवाय इस स्थिति के कि दोनों को डर हो कि अल्लाह की (निर्धारित) सीमाओं पर क़ायम न रह सकेंगे तो यदि तुमको यह डर हो कि वे अल्लाह की सीमाओ पर क़ायम न रहेंगे तो स्त्री जो कुछ देकर छुटकारा प्राप्त करना चाहे उसमें उन दोनो के लिए कोई गुनाह नहीं। ये अल्लाह की सीमाएँ है। अतः इनका उल्लंघन न करो। और जो कोई अल्लाह की सीमाओं का उल्लंघन करे तो ऐसे लोग अत्याचारी है", (सूरह अल-बक़रह: २२९)
इस आयत में पुरुष व महिला दोनों की ओर से दी जाने वाली तलाक़ का विस्तार है, यदि कोई पत्नी अपने पति से छुटकारा चाहती है, तो उसकी ओर से भी तलाक़ है, जिस को "खुलअ" कहते हैं, अल्लाह के आदेशानुसार "खुलअ" चाहने वाली महिला को अपने पति से तलाक़ मांगने का अधिकार है, अगर पति इसे स्वीकार न करे, तो पत्नी उस को महर के पैसे में से कुछ वापिस लौटा कर भी तैयार कर सकती है, फिर भी तैयार न हो, तो न्यायालय या दारुल क़ज़ा से आज़ादी प्राप्त कर सकती है,
परन्तु पत्नी तलाक़ के शब्द कह कर अपने पति से अलग नहीं हो सकती, न ही वह तलाक़ मान्य होगी, बल्कि इस में भी तलाक़ के शब्द पुरुष को ही बोलना है, और यह असमानता या नारी विरोधी नहीं, बल्कि नारी हितों पर आधारित है, अधिकतर नारियाँ अपने भावनात्मक स्वभाव पर कंट्रोल नहीं कर पाएंगी, और छोटी छोटी बातों पर वह तलाक़ दे बैठेंगी, फिर बाद में पछताएंगी,तो वास्तव में यह नारी हिट में है,
عن ابن عباس رضي الله عنهما أن امرأة ثابت بن قيس أتت النبي صلى الله عليه وسلم فقالت: يا رسول الله ثابت بن قيس ما أعتب عليه في خلق ولا دين ، ولكني أكره الكفر في الإسلام فقال رسول الله صلى الله عليه وسلم: أتردين عليه حديقته؟ قالت: نعم! قال رسول الله صلى الله عليه وسلم: اقبل الحديقة، وطلِّقها تطليقة" أخرجه البخاري
अर्थ: "हज़रत इब्न अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) से रिवायत है की: साबित बिन क़ैस की पत्नी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आई, और उस ने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! मैं साबित बिन क़ैस को उस के धर्म अथवा चरित्र की बाबत दोष नहीं दे रही हूँ, परन्तु मैं इस्लाम में कृतघ्न बनना (ना शुक्रा) पसंद नहीं करती हूँ, तो रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने पूछा: क्या तुम उस का उद्यान (बगीचा जो महर में उस ने तुम को दिया है वह उस को वापिस) लौटा दौगि? तो उस ने कहा की: हाँ! तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने (साबित बिन क़ैस से) कहा की: तुम उस बगीचा को स्वीकार कर लो, और इस को एक तलाक़ दे दो", (सहीह बुखारी)
प्रश्न : इस्लाम ने गैर मुस्लिम के लिए "काफिर" और "मुशरिक" जैसे क्रूर शब्द कहे, और यदि इस्लाम में न आएं उन्हें विनाश करने का आदेश देता है?
यह शब्द क्रूर हैं या नहीं, इस का पता करने के लिए उनके अर्थ को जनने की आवश्यकता है, तो चाहे वह बोली के माध्यम से हों, या अपने कार्य के माध्यम से,
अरबी शब्दकोश (डिक्शनरी) में "काफिर" या "कुफ्र" का अर्थ:
अरबी शब्दकोश में "कुफ्र" या "काफिर" के अर्थ में दो बातें प्रमुख हैं, :
1 - ढांकना या छिपाना: योद्धा जो अपना हथियार छिपता है, उस को काफिर कहते हैं, रात की अंधकार सब कुछ आँखों से छिपा देती ही, इस लिए रात को काफिर कहा जाता है, किसान को इस लिए काफिर कहा गया की वह बीज को धरती के अंदर छिपा देता है,
इसी प्रकार जिस वयक्ति के माध्यम अल्लाह के अधिकार छिप जाते हैं, अथवा उस का दिल ढक जाता है, और अल्लाह का मामला उसमें समता नहीं है, उसे काफिर कहा जाता है,
2 - एहसान फरामोशी: किसी के हक़ को नकारना, उस के एहसान को छिपाना किसी के अधिकार का उल्लंघन करना यह सब कुफ्र, और इन का करने वाला काफिर कहलाता है,
जो व्यक्ति अल्लाह के एहसान को नकारता, उस के हक़ को छिपता या उस के अधिकारों का उल्लंघन करता है, उसे भी काफिर कहा जाता है,
क़ुरआन में एहसान फरामोशी करने को कुफ्र कहा गया:
﴿وَإِذْ تَأَذَّنَ رَبُّكُمْ لَئِن شَكَرْتُمْ لَأَزِيدَنَّكُمْ وَلَئِن كَفَرْتُمْ إِنَّ عَذَابِي لَشَدِيدٌ﴾ سورة ابراهيم: ٧
अर्थ: "जब तुम्हारे रब ने सचेत कर दिया था कि 'यदि तुम कृतज्ञ हुए तो मैं तुम्हें और अधिक दूँगा, परन्तु यदि तुम अकृतज्ञ सिद्ध हुए तो निश्चय ही मेरी यातना भी अत्यन्त कठोर है", (सूरह इब्राहीम: ७)
क़ुरआन में किसान को काफिर कहा गया:
﴿كَمَثَلِ غَيْثٍ أَعْجَبَ الْكُفَّارَ نَبَاتُهُ ثُمَّ يَهِيجُ فَتَرَاهُ مُصْفَرًّا ثُمَّ يَكُونُ حُطَامًا﴾ سورة الحديد: ٢٠
अर्थ: "वर्षा का मिसाल की तरह जिसकी वनस्पति ने किसान का दिल मोह लिया। फिर वह पक जाती है; फिर तुम उसे देखते हो कि वह पीली हो गई। फिर वह चूर्ण-विचूर्ण होकर रह जाती है", (सूरह अल-हदीद: २०)
हदीस में हथियार छुपाने वाले योद्धा को काफिर कहा गया:
"لا تَرْجِعُوا بَعْدِي كُفَّارًا يَضْرِبُ بَعْضُكُمْ رِقَابَ بَعْضٍ" أخرجه البخاري ومسلم.
अर्थ: "मेरे बाद तुम लोग काफिर (हथियार छुपाने वाले योद्धा) मत बन जाना, जो एकदूसरे की गर्दन मरने लगो", (बुखारी,मुस्लिम)
अधिक जानकारी के लिए देखिए अरबी (शब्दकोश) डिक्शनरी:
غريب الحديث لأبي عبيد 3 / 13 غريب الحديث لابن قتيبة 1 / 247 تهذيب اللغة للأزهري 10 / 194 لسان العرب لابن منظور 5 / 145
इस्लाम की शब्दावली में "काफिर" या "कुफ्र" का अर्थ:
इस्लामी शरीयत की शब्दावली में भी क़रीब क़रीब यही अर्थ है, "कुफ्र" या "काफिर" कहते हैं ईमान या इस्लाम की तोड़ को,अल्लाह का इंकार, या शरीयत, पैग़ंबर, अथवा पैग़ंबर दुवारा जो कुछ बयान हुआ, उन सब को या कुछ को अस्वीकार करनेवाला काफिर है, देखा जाए तो इस हिसाब से भी "काफिर" का अर्थ बना: अपनी कथनी या करनी या फिर दोनों से इस्लाम वईमान को अस्वीकार करने वाला, अल्लाह की बातों का इंकार करने वाला, काफिर का यही अर्थ है अल्लाह के कलाम में,उदाहरण के लिए देखिये:
﴿وَمَن يَكْفُرْ بِآيَاتِ اللَّـهِ فَإِنَّ اللَّـهَ سَرِيعُ الْحِسَابِ﴾ سورة آل عمران: ١٩
अर्थ: "जो अल्लाह की आयतों का इनकार करेगा तो अल्लाह भी जल्द हिसाब लेनेवाला है", (सूरह आल-इमरान: १९)
अर्थात: अल्लाह के आदेश का पालन या उस के वर्जित बिंदुओं की पर्वाह करने से इंकार करने वाला, इसी प्रकार अनदेखी या भविष्य के बारे में अल्लाह की बातों का अस्वीकार करने वाला, मुसलमान का मतलब अल्लाह की बातों को तस्लीम करने वाला,और काफिर का मतलब इंकार करने वाला है, तो फिर इस में क्रूरता की क्या बात है,
अधिक जानकारी के लिए देखिए:
(المفردات ص 715 ، الفصل 3 / 253 ، الفروق 4 / 1277 ، مختصر الصواعق ص620 ، الكليات ص763 ، الإرشاد إلي معرفة الأحكام ص 203 - 204)
इस्लाम में "मुशरिक" या "शिर्क" का अर्थ:
बराबरी उदाहरण भागीदार, खोट से पाक , बेपरवाह ,स्त्री संतान , रूप , आकर, निराकार
अरबी शब्दकोश (डिक्शनरी) में "शिर्क" या "मुशरिक" का अर्थ: अरबी में "शिर्क" किसी बात में किसी एक के साथ दूसरे एक या अधिक को उस का भागीदार बनाने, शामिल या शरीक करने को कहते हैं,
इस्लाम की शब्दावली में "शिर्क" या "मुशरिक" का अर्थ: सारे ब्रह्माण्ड का निर्माता एक ही है, उस के किसी एक या अधिक अधिकारों में किसी और को उस का भागीदार, शामिल, शरीक, साझी मानना, चाहे उस की भागीदारी सिमित असीमित कम ज़्यादा जिस किसी प्रकार से क्यों न हो, किसी को उसके जैसे मानना, किसी को किसी बात में उस के बराबर मानना इस्लाम में "शिर्क" कहलाता है, तो इस प्रकार शिर्क करने वाला "मुशरिक" हुआ,
अल्लाह के अधिकारों में किसी को भागीदार बनाने, तथा किसी बात में अल्लाह के जैसे किसी को मानने ही की तरह किसी बात में किसी के जैसे अल्लाह को समझना, अथवा किसी की जगह पर अल्लाह को उतारना भी शिर्क कहलायेगा, न उस के जैसा कोई, न वह किसी के जैसा, न उस की कोई बात किसी के जैसी, न किसी की कोई बात उस की जैसी, न उस का कोई कार्य किसी के जैसा, न किसी का कोई कार्य उस के कार्य जैसा, न उस की विशेषताएं किसी की जैसी, न किसी की विशेषताएं उस की जैसी, न उस के नाम किसी के जैसा, न किसी का नाम उस के जैसा,
उस के अधिकार तीन प्रकार के हैं:
१ - तौहीद रबूबियह: ब्रह्मांड में जो कुछ होता है, वह सब कुछ उसी के आदेशानुसार होता है, इस अधिकार में वह एक अकेला है, कोई भी दूसरा भागीदार नहीं,
२ - तौहीद उलूहियह: जब यह बात सिद्ध हो गई, की ब्रह्माण्ड में उस के आदेश के बिना कुछ भी नहीं हो सकता, तो निर्माता को छोड़ ब्रह्माण्ड के सभी कुछ को एकमात्र उसी की प्रसन्नता की परवाह करनी चाहिए, इस प्रसन्नता में किसी और को भागीदार न बनाएं,
३ - तौहीद अस्मा व सिफ़ात: अल्लाह के अनगिनत सुंदर सुंदर नाम हैं, तथा बे खोट पवित्र खूबियां, खसूसियात, गुण और विशेषताएं हैं, उस के होने और वजूद के माध्यम से भी, और कार्य के माध्यम से भी, तो वह उन नामों और विशेषताओं में एक अकेला है, कोई उस का के जैसा नाम अथवा उस जैसा गुण व विशेषताओं वाला नहीं हो सकता, न वजूद में न कार्य में,
इन तीन अधिकारों में बिना किसी भागीदार, बिना किसी प्रतिनिधित्व करने वाले उदाहरण के बिना किसी को बदले, एकमात्र अल्लाह का अधिकार दिल से पूर्ण विश्वास करना, और कथनी और करनी से इस विश्वास को प्रमाणित करना ही एकेश्वरवाद (तौहीद) है, और इस में खोट होना ही शिर्क है, जिस का करने वाला "मुशरिक" कहलाता है,
तो "मुशरिक" का अर्थ हुआ: अल्लाह के अधिकार में दूसरों को भागीदार मानने वाला, अर्थात: अनेकश्वरवाद, और यह एकेश्वरवाद के विपरीत अनेकश्वरवाद विचारधारा है, जो अनेक कई भगवानों पर सिमित अथवा असीमित विश्वाश रखते हैं, तो इस में भी क्रूरता वाली कोई ऐसी बात नहीं है, ज्ञान न होने के कारण मात्र भरम फैलाया गया है,
﴿إِنَّ اللَّـهَ لَا يَغْفِرُ أَن يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَٰلِكَ لِمَن يَشَاءُ وَمَن يُشْرِكْ بِاللَّـهِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلَالًا بَعِيدًا﴾ سورة النساء: ١١٦
अर्थ: " निस्संदेह अल्लाह इस चीज़ को क्षमा नहीं करेगा कि उसके साथ किसी को शामिल किया जाए। हाँ, इससे नीचे दर्जे के अपराध को, जिसके लिए चाहेगा, क्षमा कर देगा। जो अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराता है, तो वह भटककर बहुत दूर जा पड़ा", (सूरह अल-निसा: ११६)
जहां तक बात है गैर मुस्लिम को इस्लाम में प्रवेश न करने पर उन को विनाश करने का आदेश देना, तो यह सत्य नहीं है, कि इस्लाम ग़ैर मुस्लिमों को विनाश करने का आदेश देता है, हम इस से पूर्व यह उल्लेख्य कर आए हैं की इस्लाम किसी को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर नहीं करता,
﴿لَا إِكْرَاهَ فِي الدِّينِ قَد تَّبَيَّنَ الرُّشْدُ مِنَ الْغَيِّ فَمَن يَكْفُرْ بِالطَّاغُوتِ وَيُؤْمِن بِاللَّـهِ فَقَدِ اسْتَمْسَكَ بِالْعُرْوَةِ الْوُثْقَىٰ لَا انفِصَامَ لَهَا وَاللَّـهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ﴾ سورة البقرة: ٢٥٦
अर्थ: "धर्म के विषय में कोई ज़बरदस्ती नहीं। सही बात नासमझी की बात से अलग होकर स्पष्ट हो गई है। तो अब जो कोई बढ़े हुए सरकश को ठुकरा दे और अल्लाह पर ईमान लाए, उसने ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटनेवाला नहीं। अल्लाह सब कुछ सुनने, जाननेवाला है", (सुरह अल-बक़रह: 256)
﴿لَكُمْ دِينُكُمْ وَلِيَ دِينِ﴾ سورة الكافرون: 6
अर्थ: "तुम्हारे लिए तूम्हारा धर्म है और मेरे लिए मेरा धर्म", (सूरह अल-काफ़िरून: ६)
इस्लाम को जानने और समझने के बाद अपने अंतरात्मा की आवाज़ सुन कर अपनी मर्जी से कोई इस्लाम में आए, तो ही उस का इस्लाम स्वीकार्य होगा, नहीं तो वह मुसलमान हो ही नहीं सकता, जो इस्लाम को नापसंद करते हुए, सच्चा न मानते हुए, उस के विचारधारा को ह्रदय से बिना मने अथवा मजबूरी में इस्लाम ग्रहण करता है, चाहे वह इस्लाम के सभी कार्य क्यों न करता हो,
हाँ! विनाश की बात कही गई है, परन्तु यह उन के लिए है, जो या तो मुसलमानों पर अत्याचार करते हैं, या उन की मातृभूमि सीमाओं का उललंघन करते हैं, अथवा उन के धर्म को मिटने के कार्य करते हैं, यह तो तय है की यह कार्य कोई मुस्लिम वयक्ति नहीं करेगा, यदि करे, तो उस के लिए भी यही संदेश है,
भला दुनिया में कौन सा राज्य है जो अपने धर्म की रक्षा, मातृभूमि की रक्षा, संस्कारों की रक्षा, और अपने निवासियों की रक्षा नहीं करता, जब यह सभी के लिए बीरता की दलील मणि जाती है, तो फिर इस्लाम के लिए यह ग़लत क्यों खा जाएगा, क्या अपने निवासियों (किसी भी धर्म से हों) को संकट में छोड़ कर इस्लाम को कायरता के साथ बैठे रहना चाहिए,
एक बार सोचें, यदि हमारे राज्य को पड़ोसी देशों से कोई संकट आन पड़े, सीमाओं पर खतरा के संकेत मिलें, विद्रोह का डर हो,ऐसे में राज्य के मुसलमानों को इकट्ठा कर के इस्लाम के यही उपदेश उन को सुनाया जाये, तो भी आप इस प्रवचन को ग़लत मानेंगे?! बिलकुल नहीं! तो यह तो उसी संदर्भ में है, आप कहीं से कोई जुमला काट कर कुछ ग़लत समझ लें तो इस में इस्लाम का क्या दोष है,
प्रश्न : इस्लाम में जिव जंतुओं के साथ क्रूरता बरता जाता है?
पवित्र क़ुरआन में कई एक सूरह का नाम ही जीवों के नाम पर है, जैसे की:
अल-बक़रह, (गाय) अल-अनआम, (मवेशी) अल-अंकबूत, (मकड़ी) अल-फील, (हाथी) अल-नहल, (मधुमक्खियां) अल-नमल, (चीटियां) इत्त्यादि,
अल्लाह ने जिव जंतुओं को मानव की तरह बनाया है:
﴿وَمَا مِن دَابَّةٍ فِي الْأَرْضِ وَلَا طَائِرٍ يَطِيرُ بِجَنَاحَيْهِ إِلَّا أُمَمٌ أَمْثَالُكُم﴾ سورة الأنعام: ٣٨
अर्थ: "धरती में चलने-फिरनेवाला कोई भी प्राणी हो या अपने दो परो से उड़नवाला कोई पक्षी, ये सब तुम्हारी ही तरह के गिरोह है", (सूरह अल-अनआम: ४९)
﴿وَمِن كُلِّ شَيْءٍ خَلَقْنَا زَوْجَيْنِ لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُونَ﴾ سورة الذاريات: ٤٩
अर्थ: "और हमने हर चीज़ के जोड़े बनाए, ताकि तुम ध्यान दो", (सूरह अल-ज़ारियात: ४९)
﴿وَمِنَ النَّاسِ وَالدَّوَابِّ وَالْأَنْعَامِ مُخْتَلِفٌ أَلْوَانُهُ﴾ سورة فاطر: ٢٨
अर्थ: "और मनुष्यों और जानवरों और चौपायों के रंग भी इसी प्रकार भिन्न हैं", (सूरह फ़ातिर: २८)
﴿وَالْأَرْضَ بَعْدَ ذَٰلِكَ دَحَاهَا * أَخْرَجَ مِنْهَا مَاءَهَا وَمَرْعَاهَا * وَالْجِبَالَ أَرْسَاهَا * مَتَاعًا لَّكُمْ وَلِأَنْعَامِكُمْ﴾ سورة النازعات: 29- 33
अर्थ: "और धरती को देखो! इसके पश्चात उसे फैलाया; (30) उसमें से उसका पानी और उसका चारा निकाला (31) और पहाड़ो को देखो! उन्हें उस (धरती) में जमा दिया, (32) तुम्हारे लिए और तुम्हारे मवेशियों के लिए जीवन-सामग्री के रूप में", (सूरह अल-नाज़ीआत: २९- ३३)
﴿ثُمَّ شَقَقْنَا الْأَرْضَ شَقًّا * فَأَنبَتْنَا فِيهَا حَبًّا * وَعِنَبًا وَقَضْبًا * وَزَيْتُونًا وَنَخْلًا * وَحَدَائِقَ غُلْبًا * وَفَاكِهَةً وَأَبًّا * مَّتَاعًا لَّكُمْ وَلِأَنْعَامِكُمْ﴾ سورة عبس: 26- 32
अर्थ: "फिर धरती को विशेष रूप से फाड़ा, फिर हमने उसमें उगाए अनाज, और अंगूर और तरकारी, और ज़ैतून और खजूर,और घने बाग़, और मेवे और घास-चारा, तुम्हारे लिए और तुम्हारे चौपायों के लिेए जीवन-सामग्री के रूप में", (सूरह अबस: २६- ३२)
इस्लाम में पशु अधिकार के कुछ उदाहरण:
१ - पशु, प्राणी, और सभी प्रकार के जानवरों के साथ अच्छा व्यव्हार,
इस्लाम ने सभी प्रकार के जीव जंतुओं मवेशियों और जानवरों के साथ अच्छा वय्वहार करने, उन का ध्यान रखने, उन्हें पीड़ा न देने का आदेश दिया है, यहां तक की वह मवेशी जिन का मांस खाये जाने के लिए है, उन को हलाल करते समय भी अधिक तकलीफ से बचाने ki बात कहता है,
عن شداد بن أوس رضي الله عنه عن رسول الله صلى الله عليه وسلم قال: "إن الله كتب الاحسان على كل شيء فاذا قتلتم فأحسنوا القتلة واذا ذبحتم فأحسنوا الذبحة وليحد أحدكم شفرته وليرح ذبيحته" راوه مسلم.
अर्थ: "हज़रत शद्दाद बिन औस रज़ियल्लाहु अन्हु रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म से रिवायत करते हैं की आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म ने फ़रमाया की: "अल्लाह ने हर चीज़ के साथ अच्छा बर्ताव करना अनिवार्य कर दिया है, तो जब तुम (किसी हलाल मवेशी का मांस खाने के लिए) वध करो, तो अच्छे (जिस से उस को कम कष्ट हो) से ज़ब्ह करो, और पहले तुम को ठीक से छुरी को तेज़ कर लेना चाहिए, और अपने मवेशी को आराम पहुंचाना चाहिए", (सहीह मुस्लिम)
2 - पशु, प्राणी, और सभी प्रकार के जानवरों को इस्लाम में संरक्षण प्राप्त है,
जानवर का खून सुरक्षित है, सिवाय इसके कि ईश्वर ने उसे मारने की अनुमति दी, या तो उस का मांस खाने के लिए, या मानव के लिए उस के खतरनाक होने के कारण,
عن ابن عمرو رضي الله عنه أن رسول الله صلى الله عليه وسلم قال: "ما من إنسان يقتل عصفورا فما فوقها بغير حقها إلا يسأله الله عز وجل عنها قيل يا رسول الله وما حقها قال أن يذبحها فيأكلها ولا يقطع رأسها ويرمي بها" أحمد والنسائي والدارمي والحاكم وصححه ووافقه الذهبي وقال الألباني حسن لغيره.
अर्थ: "हज़रत अब्दुल्लाह बिन अमर (अल्लाह इन दोनों से प्रसन्न हो) से रिवायत है की निसंदेह रसूलुल्लाह (आप पर अल्लाह का दरूद व स्लैम हो) ने फ़रमाया: "कोई भी व्यक्ति किसी गौरैया (पक्षी) अथवा उस से बड़े (प्राणी) का बिना अधिकार के वध करता है, तो अल्लाह उस के विषय में (क़यामत के दिन) उस से पूछेगा, कहा गया की हे अल्लाह के रसूल! उस का अधिकार क्या है?तो आप ने फ़रमाया: अगर उस का वध ही करे, तो उस को खाये, और उस का माथा को काट कर फेंक न दे" (मुसनद अहमद,नसाई, दार्मि, हाकिम, हाकिम और ज़हबी ने इस को सहीह कहा, और शैख़ अल्बानी के अनुसार हसन ली ग़ैरेही (प्रमाणित) है)
कुछ मवेशियों का मांस खाने के लिए उन के वध करने की अनुमति दी, जैसे की:
﴿ أُحِلَّتْ لَكُم بَهِيمَةُ الْأَنْعَامِ إِلَّا مَا يُتْلَىٰ عَلَيْكُمْ غَيْرَ مُحِلِّي الصَّيْدِ وَأَنتُمْ حُرُمٌ إِنَّ اللَّـهَ يَحْكُمُ مَا يُرِيدُ﴾ سورة المائدة: ١
अर्थ: "तुम्हारे लिए चौपायों की जाति के जानवर हलाल हैं सिवाय उनके जो तुम्हें बताए जा रहें हैं; लेकिन जब तुम इहराम की दशा में हो तो शिकार को हलाल न समझना। निस्संदेह अल्लाह जो चाहते है, आदेश देता है", (सूरह अल-माइदह: १)
﴿وَلِكُلِّ أُمَّةٍ جَعَلْنَا مَنسَكًا لِّيَذْكُرُوا اسْمَ اللَّـهِ عَلَىٰ مَا رَزَقَهُم مِّن بَهِيمَةِ الْأَنْعَامِ﴾ سورة الحج: ٣٤
अर्थ: "और प्रत्येक समुदाय के लिए हमने क़ुरबानी का विधान किया, ताकि वे उन जानवरों अर्थात मवेशियों पर अल्लाह का नाम लें, जो उसने उन्हें प्रदान किए हैं", (सूरह अल-हज्ज: ३४)
और कुछ प्राणी मनुष्य के लिए घटक हैं, इस कारण उन के वध करने की अनुमति दी, जैसे की:
عن عائشة رضي الله عنها عن النبي صلى الله عليه وسلم أنه قال: "خمس فواسق يقتلن في الحل والحرم الحية والغراب الأبقع والفأرة والكلب العقور والحديا" أخرجه مسلم.
अर्थ: "हज़रत आइशह रज़ियल्लाहु अन्हा नबी सल्लाल्ल्हू अलैहि व सल्ल्म से रिवायत करती हैं की आप ने फ़रमाया: "पाँच विद्रोह प्राणी हैं, जिन्हें पवित्र स्थल हो या उस के बाहर, उन सब का वध किया जाएगा, सांप, वह काव जिसके पीठ और पेट में सफेदी हो, चूहा, काटने वाला कुत्ता और चील", (सहीह मुस्लिम)
३ - पशु, प्राणी, और सभी प्रकार के जानवरों पर अत्याचार करना इस्लाम में वर्जित है,
उन को बिना कारण बिना आवश्यकता के मरना पीटना, उन के शरीर को काटना, उन को आपस में लड़ाना, खेल तमाशा मनोरंजन अथवा रीत रिवाज के नाम पर उन पर किसी भी प्रकार से अत्याचार इस्लाम में वर्जित है,
عن عبدالله بن عمر رضي الله عنهما أنه مر بفتيان من قريش قد نصبوا طيراً وهم يرمونه، وقد جعلوا لصاحب الطير كل خاطئة من نبلهم، فلما رأوا ابن عمر تفرقوا، فقال ابن عمر: من فعل هذا؟ لعن الله من فعل هذا، إن رسول الله صلى الله عليه وسلم لعن من اتخذ شيئاً فيه الروح غرضاً" متفق عليه.
अर्थ: "हज़रत अब्दुल्लाह इब्न उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा कुरैश के कुछ लड़कों के सामने से गुज़रे, जिन्होंने एक पक्षी स्थापित कर रखा था, और वह उसे अपने बाणों (तीर) से निशाना लगा रहे थे, जो बाण चूक जाते, वह बाण पक्षी वाले का हो जाता, जब उन्हों ने इब्न उमर को देखा, तो वह तीतर बितर हो गए, इब्न उमर ने कहा: यह किस ने किया है? यह जिस ने भी किया है, उस पर अल्लाह की लानत (शाप, धिक्कार) है, निसंदेह रसूलुल्लाह सल्लाल्ल्हू आलिहि व सल्लम ने उन को शाप दिया है, जो प्राणियों को तीर अंदाज़ी के (अभ्यास) लिए निशाने पर रखते हैं", (बुखारी, मुस्लिम(
عن جابر رضي الله عنه: "أن النبي صلى الله عليه وسلم مر عليه حمار قد وُسِمَ في وجهه فقال: لعن الله الذي وسم" رواه مسلم
अर्थ: "हज़रत जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है की: नबी सल्लाल्ल्हू आलिहि व सल्लम के पास से एक गधा गुज़रा, जिस के चेहरे पर आग से दाग दिया गया था, तो आप सल्लाल्ल्हू आलिहि व सल्लम ने फ़रमाया: "जिस ने इस को दागा है, उस पर अल्लाह की ओर से धिक्कार हो" (सहीह मुस्लिम)
इस्लाम बैल के साथ कुश्ती, सांडों के साथ धींगा मस्ती, या कॉकफ़ाइटिंग (मुर्गा लड़ाई) इत्त्यादि जैसे जानवरों पर अत्याचार का घोर विरोधी है,
4 - पशु, प्राणी, और सभी प्रकार के जानवरों को तंग करना मना है,
बिना आवयश्कता के उन को क़ैद करना, भूखे पियासे रखना, कष्ट देना, और उन को तंग करना इस्लाम में कठोर निंदनीय है,
عن ابن عمر رضي الله عنهما عن النبي صلى الله عليه وسلم قال: "دخلت امرأة النار في هرة ربطتها فلم تطعمها ولم تدعها تأكل من خشاش الأرض" متفق عليه
अर्थ: "हज़रत अब्दुल्लाह इब्न उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा नबी सल्लाल्ल्हू अलैहि व सल्ल्म से रिवायत करते हैं की आप ने फ़रमाया: "एक महिला एक बिल्ली के कारण नर्क में गई, जिस को उसने बांध कर रखा, और न तो उस ने उसे खिलाया, और न छोड़ दिया की वह धरती के कीड़े मकोड़े में से कुछ खा लेती", (बुखारी, मुस्लिम)
५ - क्षमता से अधिक काम न लिया जाये,
किसी भी जानवर से उस के क्षमता से अधिक काम न लिया जाये,
عن عبدالله بن جعفر رضي الله عنهما وفيه: فدخل يوماً حائطاً من حيطان الأنصار فإذا جمل قد أتاه، فجرجر وذرفت عيناه فمسح رسول الله صلى الله عليه وسلم سراته وذفراه، وهو الموضع الذي يعرق منه الإبل خلف الأذن - فسكن فقال: "من صاحب الجمل" ؟ فجاء فتىً من الأنصار فقال: هو لي يا رسول الله! فقال: "أما تتقي الله في هذه البهيمة التي ملككها الله! إنه اشتكى إلي أنك تجيعه وتدئبه" (مسند أحمد)
अर्थ: "हज़रत अब्दुल्लाह बिन जा'फर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है, उस में यह भी है की: नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अंसार के बगीचों में से एक बगीचा में प्रवेश किया, तो आप के पास एक ऊँट आया, कष्ट के साथ धीरे धीरे चलता हुआया, उस की दोनों आँखों से आंसू बह गए, तो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस की नाभि और कान के पीछे अपना हाथ फेरा, कान के पीछे यह वह स्थान है, जहाँ पर ऊँट को पसीना आता है, इस के बाद वह ऊँट चुप हुआ, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा की: इस ऊँट का मालिक कौन है? तो अंसार का एक यूवक ने आ कर कहा की: वह मेरा है ऐ अल्लाह के रसूल! तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा की: क्या तुम इस जानवर के संबंध में अल्लाह से भय भीत नहीं हो, जिस अल्लाह ने तुझे इस का मालिक बनाया है?! इस ने मुझ से तेरी शिकायत की, यह की तुम उस को भूखा रखते हो, और क्षमता से अधिक थकाते हो", (मुसनद अहमद)
6 - जो जिस प्रकार का जानवर है, उस से उसी प्रकार का काम लिया जाये,
जिस प्रकार का जानवर है, उस से उसी प्रकार का काम लिया जाये, बोझ धोने वाले को खेत में न जोटा जाये, न खेत जोतने वाले पर सामान लादा जाये,
عن أبي هريرة رضي الله عنه قال: صلى رسول الله صلى الله عليه وسلم صلاة الصبح ثم أقبل على الناس فقال: "بينا رجل يسوق بقرة إذ ركبها فضربها فقالت إنا لم نخلق لهذا إنما خلقنا للحرث فقال الناس سبحان الله بقرة تكلم فقال فإني أومن بهذا أنا وأبو بكر وعمر" متفق عليه.
अर्थ: "हज़रत अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है की रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सुबह की नमाज़ पढ़ी,फिर लोगों की ओर मुंह कर के फ़रमाया: एक वयक्ति एक गाय को हांके ले जा रहा था की उस के ऊपर सवार हो गया, तो उस (गाय) ने कहा: की हम इस के लिए पैदा नहीं किये गए हैं, ह,,म तो खेती के लिए पैदा किये गए हैं, तो लोगों ने कहा: अल्लाह पवित्र है, गाय ने बात की! तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: मुझे इस पर पूर्ण विश्वास है, मुझे और अबू बक्र व उमर को भी", (बुखारी, मुस्लिम)
7 - पशुओं प्राणियों और सभी प्रकार के जानवरों के भावनाओं का सम्मान,
सभी प्राणियों में भावनाएं पाई जाती हैं, उनके अंदर ममता,वफादारी, प्रेम, भय इत्त्यादि जैसी भावनाओं की मात्रा पाई जाती है,उनके इन भावनाओं का सम्मान होना चाहिए,
عن عبد الله بن عباس رضي الله عنهما قال: مر رسول الله صلى الله عليه وسلم على رجل واضع رجله على صحفة شاة وهو يحد شفرته وهي تلحظ إليه ببصرها فقال : " أفلا قبل هذا؟ أو تريد أن تميتها موتات" (رواه الطبراني في الأوسط صححه الألباني في صحيح الترغيب 1090)
अर्थ: "हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है की: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक आदमी के पास से गुज़रे, जो एक बकरी के पहलु पर अपना पैर रखे छुरी को तेज़ कर रहा था, और वह बकरी उस की ओर देख रही थी, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: इस से पूर्व क्यों नहीं (तेज़ कर लिया था अपनी छुरी को)? क्या तुम इस को कई मृत्यु मारना चाहते हो?! (तबरानी, अल्बानी ने सहीह अल-तरग़ीब १०९० में इस को सहीह कहा है)
عن عبد الله ابن مسعود رضي الله عنه قال: كنّا مع رسول الله صلى الله عليه وسلم في سفر، فانطلق لحاجته، فرأينا حمرةً معها فرخان، فأخذنا فرخيها، فجاءت الحمرة فجعلت تعرّش، فجاء النبي صلى الله عليه وسلم فقال: "من فجع هذه بولدها؟ ردوا ولدها إليها" ورأى قريةَ نملٍ قد حرقناها فقال: من حرقَ هذه ؟ قلنا: نحن، قال: "إنه لا ينبغي أن يعذِّبَ بالنارِ إلا ربُّ النارِ" (رواه أبو داوود، وصححه الألباني في صحيح أبي داوود 5268)
अर्थ: "हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है की हम रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ सफर में थे, तो आप अपनी हाजत के लिए चले गए, तो हम ने एक पक्षी को देखा जिसके दो चूज़े थे, तो हम ने उन दोनों चूज़ों को अपने साथ ले लिया, तो वह पक्षी आई और मंडलाने लगी, इतने में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम आ गए, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने पूछा की: "कौन है जो इस के बच्चों के माध्यम से उस की घबराहट का कारण बना? उस के बचे उस को वापस कर दो", (अबू दाऊद, शैख़ अल्बानी ने सहीह अबू दाऊद ५२६८ में इस को सहीह कहा)
और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने चींटियों के घरोंदे को देखा, जिस को हम ने आग लगा दी थी, तो सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने पूछा की: इस को किस ने आग लगाई?! तो हम ने कहा की: हम लोगों ने! तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया की: "आग से किसी को सज़ा देने का अधिकार नहीं है, सिवाये आग के रब्ब के" (अबू दाऊद, शैख़ अल्बानी ने सहीह अबू दाऊद ५२६८ में इस को सहीह कहा है)
7 - सभी प्रकार के जानवरों के लिए रहने बसने खाने पीने का अच्छा व्यवस्था,
पशुओं प्राणियों और सभी प्रकार के जानवरों के लिए रहने बसने खाने पीने का अच्छा व्यवस्था करना मनुष्य का कर्तव्य है, और महान लोग इस का पूरा पूरा ध्यान रखते हैं,
عمر بن الخطاب رضي الله عنه عندما قال: "لو أن بغلة في العراق تعثرت لخشيت أن يسألني الله عنها لمَ لمْ أسوي لها الطريق"
अर्थ: "मुसलमानों के दूसरे खलीफह हज़रत उमर बन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु ने फ़रमाया की: "यदि कोई खच्चर इराक में फिसल कर गिर जाये, तो मुझे डर है की उस संबंध में अल्लाह मुझ से पूछेगा, की तू ने रास्तों को उस के चलने के लिए ठीक क्यों नहीं किया था?!"
عن الأوزاعي بلاغا: "أن عمر بن الخطاب قال: لو ماتت سخلة على شاطئ الفرات ضيعة لخفت أن أسأل عنها" (عند البيهقي في الشعب وأبي نعيم في الحلية وابن عساكر في تاريخ دمشق، وقد جاء موصولا في أنساب الأشراف فلعله في بعض كتب محمد بن سعد غير المطبوع)
अर्थ: "इमाम औजाई कहते हैं की हज़रत उमर बन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा: "यदि कोई बकरी या भेड़ का बच्चा फुरात नदी के किनारे मर गया, तो मुझे डर है की उस संबंध में मुझ से पूछा जायेगा", (बैहक़ी, हिलयत अल-औलीया, इब्न असाकिर,तारिख दिमश्क़)
عن داود بن علي بن عبد الله بن عباس قال: قال عمر رضي الله عنه: "لو ماتت شاة على شط الفرات ضائعة، لظننت أن اللّه عز وجل سائلي عنها يوم القيامة" (أبو نعيم في الحلية 1/53)
अर्थ: "दाऊद बिन अली बिन अब्दुल्लाह बिन अब्बास से रिवायत है की: "हज़रत उमर बन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा: "यदि फुरात नदी के किनारे किसी बकरी की भटक कर मृत्यु हो गई, तो मुझे गुमान है की उस संबंध में अल्लाह क़यामत के दिन मुझ से पूछेगा" (हिलयत अल-औलीया १/ ५३)
أن عمر بن الخطاب رضى الله عنه خطب الناس فقال والذي بعث محمدا بالحق لو أن جملا هلك ضياعا بشط الفرات خشيت أن يسأل الله عنه آل الخطاب قال أبو زيد آل الخطاب يعني نفسه ما يعني غيرها " (تاريخ الطبري 3 / 272 الطبقات الكبرى 3 /305(
"हज़रत उमर बन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु ने लोगों को प्रवचन दिया, उस में आप ने कहा: "क़सम है उस की जिस ने मुहम्मद को हक़ के साथ नबी बना कर भेजा, यदि फुरात नदी के किनारे कोई ऊँट गुम हो कर मर जाये, तो मुझे डर है की खत्ताब की नस्ल (अपने आप के बारे) को उस संबंध में पूछा जायेगा", (तारिख अल-तबरी ३/ २७२, अल-तबक़ात अल-कुबरा ३/ ३०५)
عن أبي هريرة رضي الله عنه أن رسول الله صلى الله عليه وسلم قال: "بينما رجل يمشي بطريق إذ اشتد عليه العطش، فوجد بئرا، فنزل فيها، فشرب وخرج، فإذا كلب يلهث، يأكل الثرى من العطش، فقال الرجل: لقد بلغ هذا الكلب من العطش مثل الذي بلغ مني، فنزل البئر فملأ خفه، ثم أمسكه بفيه حتى رقي فسقى الكلب، فشكر الله له فغفر له، فقالوا : يا رسول الله ! وإن لنا في البهائم لأجرا ؟ فقال: "في كل ذات كبد رطبة أجر" متفق عليه
अर्थ: हजरत अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवायत करते हैं, की आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: "एक आदमी किसी रास्ते में चला जा रहा था कि उस की पियास अधिक बढ़ गई, उस ने एक कुवां पाया, तो वह उस पर उतर गया, पानी पिया फिर बाहर निकल आया, इतने में देखता है की एक कुत्ता पियास से हांप रहा है, और पियास के कारण वहां की गीली मिटटी को खा रहा है, उस आदमी ने कहा की इस कुत्ते को वैसे ही पियास लगी ही, जैसे मुझे लगी थी,फिर वह कुएं में निचे उतरा, और अपने चमड़े के मोज़े में पानी भरा, उस को अपने मुंह से पकड़ा, और हाथों के सहारे कुएं के बाहर आ गया, फिर कुत्ते को वह पानी पीला दिया, तो अल्लाह ने उस के इस कार्य को पसंद किया, और उस आदमी को क्षमा प्रदान किया, लोगों ने कहा: हे अल्लाह के रसूल! जानवरों की सेवा में भी हमें नेकी मिलेगी? तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: प्रत्येक गीले जिगर (जीवित प्राणी) की सेवा में नेकी है", (बुखारी, मुस्लिम)
عن أبي هريرة رضي الله عنه عن النبي صلى الله عليه وسلم قال: "بينما كلب يطيف بركية كاد يقتله العطش إذ رأته بغي من بغايا بني إسرائيل فنزعت موقها فسقته فغفر لها به" متفق عليه
अर्थ: हजरत अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवायत करते हैं, की आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: "एक कुत्ता बिना मुंडेर के कुएं के चारों ओर चक्कर लगा रहा था, क़रीब था की पियास उस को मार डाले,इतनेउसे में बनी इसराइल (यहूद) की वेश्याओं में से एक ने उस कुत्ते को देख लिया, तो उस ने अपने चमड़े के मोज़े को उतरा,और उसी से उस को पानी पिलाया, इस के कारण अल्लाह ने उस को क्षमा प्रदान किया", (बुखारी, मुस्लिम)
عن عبد الله بن عمرو بن العاص رضي الله عنه أن النبي صلى الله عليه وسلم قال: "الراحمون يرحمهم الرحمن تبارك وتعالى، ارحموا من في الأرض يرحمكم من في السماء" (أبو داوود والترمذي وأحمد، وصححه الألباني في الصحيحة 2/ 630)
अर्थ: हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा की रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: "दया करने वालों पर दयालु (रहमान, अल्लाह का नाम है) भी दयावान होता है, जो कुछ धरती में प्राणी हैं, उन पर दया करो, तो जो आकाश में है (अल्लाह) तुम पर दया करेगा" (अबू दाऊद, तिर्मिज़ी, मुसनद अहमद, शैख़ अल्बानी ने सिलसिलह सहीहह २/ ६३० में इस को सहीह कहा है)
पैग़ंबर के प्रिय साथी "अबू हुरैरह" के नाम से इस लिए चर्चित हैं, की वह एक बिल्ली के बच्चे से प्रेम करते थे, उसे हमेशा अपने साथ रखते थे, यह पैग़ंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का उपदेश है, यह इस्लाम की सिद्धांत है,
क्या इन सब के बाद भी किसी को लगता है की इस्लाम में जिव अत्याचार का कल्पना भी है?! कदापि नहीं, क्यों की इस्लाम पुरे ब्रह्माण्ड के प्राणियों तथा जिव जंतुओं के लिए अम्न व शांति का दूत है, सब को उस के अधिकार और सम्मान देता है, यही सत्य है,
प्रश्न : क्या इस्लाम में ऊंच नीच भेद भाव है?
इस्लाम में समानता और बराबरी
समानता और बराबरी इस्लाम के विचारधारा का अंश है, ऊँच नीच भेद भाव का कठोर शब्दों में निंदा करता है, यह बराबरी मानवता में है, न की मानवता के गुणों में, कोई जज या ग्रु है, तो यह असल मानवता नहीं, बल्कि उन के गुण हैं, तो जज की कुर्सी में अपराधी को, या ग्रु की जगह पर शीर्ष को बैठाना समानता नहीं, गुणों के साथ अन्याय है, हाँ मानवता और खानदान, कबीला,कुंबा, रंग, नस्ल, देश, भाषा इत्त्यादि में सभी एकसमान और बराबर हैं, अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन में इस का उल्लेख किया:
﴿يَا أَيُّهَا النَّاسُ اتَّقُوا رَبَّكُمُ الَّذِي خَلَقَكُم مِّن نَّفْسٍ وَاحِدَةٍ وَخَلَقَ مِنْهَا زَوْجَهَا وَبَثَّ مِنْهُمَا رِجَالًا كَثِيرًا وَنِسَاءً وَاتَّقُوا اللَّـهَ الَّذِي تَسَاءَلُونَ بِهِ وَالْأَرْحَامَ إِنَّ اللَّـهَ كَانَ عَلَيْكُمْ رَقِيبًا﴾ سورة النساء: ١
अर्थ: "ऐ लोगों! अपने रब का डर रखों, जिसने तुमको एक जीव से पैदा किया और उसी जाति का उसके लिए जोड़ा पैदा किया और उन दोनों से बहुत-से पुरुष और स्त्रियाँ फैला दी। अल्लाह का डर रखो, जिसका वास्ता देकर तुम एक-दूसरे के सामने माँगें रखते हो। और नाते-रिश्तों का भी तुम्हें ख़याल रखना हैं। निश्चय ही अल्लाह तुम्हारी निगरानी कर रहा हैं", (सूरह अल-निसा: १)
इसी प्रकार इस्लाम ने मानवता में स्त्री पुरुष के बीच कोई भेद भाव नहीं रखा, यही कारण है की अलग से महिलाओं के लिए कोई संस्था, कोई फरमान या कोई अलग कार्यशेली नहीं मिलती, हाँ उन के गुणों के अनुसार इस्थान और कार्य दिया है, दोनों को एक ही कार्य अथवा एक ही इस्थान देना उन के गुणों का अपमान होगा,
﴿مَنْ عَمِلَ صَالِحًا مِّن ذَكَرٍ أَوْ أُنثَىٰ وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَلَنُحْيِيَنَّهُ حَيَاةً طَيِّبَةً وَلَنَجْزِيَنَّهُمْ أَجْرَهُم بِأَحْسَنِ مَا كَانُوا يَعْمَلُونَ﴾ سورة النحل: ٩٧
अर्थ: "जिस किसी ने भी अच्छा कर्म किया, पुरुष हो या स्त्री, शर्त यह है कि वह ईमान पर हो, तो हम उसे अवश्य पवित्र जीवन-यापन कराएँगे। ऐसे लोग जो अच्छा कर्म करते रहे उसके बदले में हम उन्हें अवश्य उनका प्रतिदान प्रदान करेंगे", (सूरह अल-नहल: ९७)
और जो खानदान कबीले और नस्ल इत्यादि का अंतर् है, वह केवल एक दूसरे को पहचानने के लिए है, अल्लाह ने कहा की:
﴿يَا أَيُّهَا النَّاسُ إِنَّا خَلَقْنَاكُم مِّن ذَكَرٍ وَأُنثَىٰ وَجَعَلْنَاكُمْ شُعُوبًا وَقَبَائِلَ لِتَعَارَفُوا إِنَّ أَكْرَمَكُمْ عِندَ اللَّـهِ أَتْقَاكُمْ إِنَّ اللَّـهَ عَلِيمٌ خَبِيرٌ﴾ سورة الحجرات: ١٣
अर्थ: "ऐ लोगो! हमनें तुम्हें एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया और तुम्हें बिरादरियों और क़बिलों का रूप दिया, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में अल्लाह के यहाँ तुममें सबसे अधिक प्रतिष्ठित वह है, जो तुममे सबसे अधिक डर रखता है। निश्चय ही अल्लाह सबकुछ जाननेवाला, ख़बर रखनेवाला है", (सूरह अल-हुजुरात: १३)
दरअसल पवित्र क़ुरआन के आने से पूर्व लोगों में भेद भाव ऊँच नीच और असमानता का राज था, अमीर ग़रीब में अंतर,ख़ानदान और कबीलों में अहंकार, रंग व नस्ल तथा इलाका व भाषा में ग़ैर बराबरी, न्याय में भी अपने लोगों का पक्ष पात बरतना लोगों का अधिकार बन गया था,
जो लोग ईमान ले आते, उन को कहते:
﴿قَالُوا أَنُؤْمِنُ لَكَ وَاتَّبَعَكَ الْأَرْذَلُونَ﴾ سورة الشعراء: ١١١
अर्थ: "उन्होंने कहा, "क्या हम तेरी बात मान लें, जबकि तेरे पीछे तो अत्यन्त नीच लोग चल रहे है?", (सूरह अल-शोअराअ: १११)
﴿وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ آمِنُوا كَمَا آمَنَ النَّاسُ قَالُوا أَنُؤْمِنُ كَمَا آمَنَ السُّفَهَاءُ﴾ سورة البقرة: ١٣
अर्थ: "और जब उनसे कहा जाता है, "ईमान लाओ जैसे लोग ईमान लाए हैं", कहते हैं, "क्या हम ईमान लाए जैसे कम समझ लोग ईमान लाए हैं?", (सूरह अल-बक़रह: १३)
ऐसे में इस्लाम ने उन कुप्रथाओं का संज्ञान लेते होए सामना किया, और एक समान और सम्मान पूर्वक सुसाइटी का गठन किया,
﴿وَلَا تَطْرُدِ الَّذِينَ يَدْعُونَ رَبَّهُم بِالْغَدَاةِ وَالْعَشِيِّ يُرِيدُونَ وَجْهَهُ مَا عَلَيْكَ مِنْ حِسَابِهِم مِّن شَيْءٍ وَمَا مِنْ حِسَابِكَ عَلَيْهِم مِّن شَيْءٍ فَتَطْرُدَهُمْ فَتَكُونَ مِنَ الظَّالِمِينَ﴾ سورة الأنعام: ٥٢
अर्थ: "और जो लोग अपने रब को उसकी ख़ुशी की चाह में प्रातः और सायंकाल पुकारते रहते है, ऐसे लोगों को दूर न करना। उनके हिसाब की तुमपर कुछ भी ज़िम्मेदारी नहीं है और न तुम्हारे हिसाब की उनपर कोई ज़िम्मेदारी है कि तुम उन्हें दूर करो और फिर हो जाओ अत्याचारियों में से", (सूरह अल-अनआम : ५२)
عن أبي نضرة قال حدثني من سمع خطبة رسول الله صلى الله عليه وسلم في وسط أيام التشريق فقال: "يا أيها الناس ألا إن ربكم واحد وإن أباكم واحد ألا لا فضل لعربي على أعجمي ولا لعجمي على عربي ولا لأحمر على أسود ولا أسود على أحمر إلا بالتقوى" (مسند أحمد وصححه الألباني في الصحيحة 6/199)
अर्थ: "हज़रत अबू नज़रह ने कहा की अय्यामे तशरीक़ (अरबी के १२ वें महीने की ११, १२ और १३ तारिख) के बिच जिस ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का ख़ुत्बह (हज्जतुल विदा'अ में मीना के मैदान में) सुना था, उस ने मुझे यह हदीस बताई है की रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस में कहा: "हे लोगो! सचित रहो, की निसंदेह तुम्हारा रब एक है, और निसंदेह तुम्हारा पिता एक है, सचित रहो की किसी अरबी को किसी आजमी (ग़ैर अरबी) पर बढ़ोतरी है, और न आजमी को अरबी पर, न गोरे को काले पर, न काले को गोरे पर, परन्तु तक़वा (शीलता पूर्वक धर्मता) के माध्यम से", (मुसनद अहमद, शैख़ अल्बानी ने इस को सिलसिलह सहिहह ६/ १९९ में सहीह कहा है)
عن أبي هريرة قال قال رسول الله صلى الله عليه وسلم: "إن الله عز وجل قد أذهب عنكم عبية الجاهلية وفخرها بالآباء مؤمن تقي وفاجر شقي أنتم بنو آدم وآدم من تراب ليدعن رجال فخرهم بأقوام إنما هم فحم من فحم جهنم أو ليكونن أهون على الله من الجعلان التي تدفع بأنفها النتن" (رواه أبو داود وأحمد والطبراني وحسنه الألباني في صحيح الجامع برقم 1787)
अर्थ: "हजरत अबू हुरैरह (अल्लाह इन से प्रसन्न हो) से रवायत है की अल्लाह के रसूल (आप पर अल्लाह का दरूद व सलाम हो) ने फ़रमाया : निसंदेह अल्लाह ने तुम से जाहेलियत (अधर्मी व अज्ञानता) वाला अहंकार, और बाप दादाओं पर घमंड को हटा दिया है, (मोमिन दो प्रकार के हैं, एक) मोमिन मुत्तक़ी है,(धार्मिक व नेक है, चाहे वह लोगों में इस की पहचान न रखता हो, तो वह तो अहंकार करेगा नहीं, न करना चाहिए, और दूसरा मोमिन) अनैतिकता और पापों में लिप्त है, (तो इस के लिए तो इस में अहंकार की कोई बात ही नहीं है) तुम सब आदम के पुत्र हो, और आदम मिट्टी से हैं, (जब असल मिट्टी है, तो अहंकार कैसा?)लोगों को अपने अपने समुदायों (कबीलों और खानदानों और बाप दादाओं) पर अहंकार अवश्य छोड़ देना चाहिए, वह नर्क के कोयलों में से एक कोयला हैं, (अधर्मी अवस्था में मृत्यु के बाद नर्क में हैं, तो उन पर क्या अहंकार करना?) यदि (वह अहंकार छोड़ते) नहीं तो अल्लाह के निकट उस काले कीड़े से भी गए गुज़रे हो जायेंगे, जो अपनी नाक से गंदगी को धकेलता है", (अबू दाऊद, मुसनद अहमद, तबरानी, शैख़ अल्बानी ने सहीह अल-जामेअ (१७८७) में हसन (प्रमाणित) कहा है)
अधर्मी अज्ञानता और जाहिलियत वाला अहंकार को इस्लाम ने तोडा, सब को एक कतार में खड़ा किया, फिर सब भाई भाई बन गए, अल्लाह ने कहा:
﴿وَاعْتَصِمُوا بِحَبْلِ اللَّـهِ جَمِيعًا وَلَا تَفَرَّقُوا وَاذْكُرُوا نِعْمَتَ اللَّـهِ عَلَيْكُمْ إِذْ كُنتُمْ أَعْدَاءً فَأَلَّفَ بَيْنَ قُلُوبِكُمْ فَأَصْبَحْتُم بِنِعْمَتِهِ إِخْوَانًا وَكُنتُمْ عَلَىٰ شَفَا حُفْرَةٍ مِّنَ النَّارِ فَأَنقَذَكُم مِّنْهَا كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ اللَّـهُ لَكُمْ آيَاتِهِ لَعَلَّكُمْ تَهْتَدُونَ﴾ سورة آل عمران: ١٠٣
अर्थ: "और सब मिलकर अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो और विभेद में न पड़ो। और अल्लाह की उस कृपा को याद करो जो तुमपर हुई। जब तुम आपस में एक-दूसरे के शत्रु थे तो उसने तुम्हारे दिलों को परस्पर जोड़ दिया और तुम उसकी कृपा से भाई-भाई बन गए। तुम आग के एक गड्ढे के किनारे खड़े थे, तो अल्लाह ने उससे तुम्हें बचा लिया। इस प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयते खोल-खोलकर बयान करता है, ताकि तुम मार्ग पा लो", (सूरह आल-इमरान: 103)
फिर तो ऐसा हो गया की जो इस कार्य को भूल से भी कर लेता, उस का कड़े शब्दों में विरोध होने लगा,
عن أبي ذر رضي الله عنه قال: رأيت عليه بُرْدًا، وعلى غلامه برداً، فقلت: لو أخذت هذا فلبسته كانت حُلَّةً، وأعطيته ثوباً آخر، فقال: كان بيني وبين رجل كلام، وكانت أمه أعجميةً، فنلت منها، فذكرني إلى النبي - صلى الله عليه وسلم -، فقال لي: "أساببت فلاناً" قلت: نعم، قال: "أفنلت من أمه" قلت: نعم، قال: "إنك امرؤ فيك جاهلِية" قلت على حين ساعتي: هَذِهِ من كبر السن؟ قال: "نعم، هم إخوانكم، جعلهم الله تحت أيديكم، فمن جعل الله أَخاه تحت يده، فليطعمه مما يأكل، وليلبسه مما يلبس، ولا يكلفه من العمل ما يغلبه، فإن كلفه ما يغلبه فليعنه عليه" متفق عليه.
हज़रत अबू ज़र रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है की: एक आदमी को मैं ने देखा, जो की एक चादर ओढ़ा हुआ था, और उस के नौकर पर भी एक ऐसी ही चादर थी, तो मैं ने कहा की यदि इस नौकर को दूसरी चादर देते, और उस चादर को भी खुद ओढ़ लेते, तो जोड़ा हो जाता, कहते हैं की मेरे और उस आदमी के बिच कुछ नोक झोक हो गई, उस की मां आजमी (ग़ैर अरबी) थी,तो मैं ने उस के सम्मान में कमी कर दी, तो उस आदमी ने नबी सल्ललाहु अलैहि व सल्लम के निकट मेरा ज़िक्र कर दिया, तो रसूलुल्लाह सल्ललाहु अलैहि व सल्लम ने मुझ से पूछा की: "क्या तुम ने फलाने को गाली दी है?!" मैं ने कहा: हाँ! तो आप ने कहा: "क्या तुम ने उस की माता के सम्मान में कमी की है?!" मैं ने कहा: हाँ! तो आप सल्ललाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया की: "निसंदेह तुम ऐसे आदमी हो की तुम में अभी भी जाहिलियत (के कार्य) बाक़ी है" मैं ने कहा: मेरे बूढ़ापे के इस छण तक?! आप सल्ललाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: "हाँ! वह (ग़ैर अरब) तुम्हारे भाई हैं, अल्लाह ने उन्हें तुम्हारे मातेहत (नौकर) कर दिया है,तो जिस के भाई को अल्लाह ने उस के मातेहत कर दिया हो, उसे उस को वही खिलाना चाहिए जो सोयं खाये, और उस को वही पहनाना चाहिए, जो खुद पहनता है, और वह कार्यभार न दे, जिस का वह पालन नहीं कर सकता है, यदि वह शक्ति से अपार कार्य सौंप दे, तो उसे उस कार्य में उस की सहायता करनी चाहिए" (बुखारी, मुस्लिम)
बहुत से उलामा का मानना है की हज़रत अबू ज़र रज़ियल्लाहु अन्हु से जिस वयक्ति की नोक झोक हुई थी, वह हज़रत बिलाल हब्शी रज़ियल्लाहु अन्हु थे, परन्तु यह बात ठीक से प्रमाणित नहीं है,
इसी प्रकार इस्लाम कहता है की जब कोई न्याय के लिए आये, तो अमीर ग़रीब, छोटा बड़ा, इत्यादि बातों को बिच में न आने दें,और उचित न्याय करे, अल्लाह ने फ़रमाया:
﴿إِنَّ اللَّـهَ يَأْمُرُكُمْ أَن تُؤَدُّوا الْأَمَانَاتِ إِلَىٰ أَهْلِهَا وَإِذَا حَكَمْتُم بَيْنَ النَّاسِ أَن تَحْكُمُوا بِالْعَدْلِ إِنَّ اللَّـهَ نِعِمَّا يَعِظُكُم بِهِ إِنَّ اللَّـهَ كَانَ سَمِيعًا بَصِيرًا﴾ سورة النساء: ٥٨
अर्थ: "अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि अमानतों को उनके हक़दारों तक पहुँचा दिया करो। और जब लोगों के बीच फ़ैसला करो,तो न्यायपूर्वक फ़ैसला करो। अल्लाह तुम्हें कितनी अच्छी नसीहत करता है। निस्सदेह, अल्लाह सब कुछ सुनता, देखता है", (सूरह अल-निसा: 58)
फिर वह फैसला चाहे आप के निकटतम व प्रियतम लोगों के विरुद्ध ही क्यों न हो?!
﴿يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُونُوا قَوَّامِينَ بِالْقِسْطِ شُهَدَاءَ لِلَّـهِ وَلَوْ عَلَىٰ أَنفُسِكُمْ أَوِ الْوَالِدَيْنِ وَالْأَقْرَبِينَ إِن يَكُنْ غَنِيًّا أَوْ فَقِيرًا فَاللَّـهُ أَوْلَىٰ بِهِمَا فَلَا تَتَّبِعُوا الْهَوَىٰ أَن تَعْدِلُوا وَإِن تَلْوُوا أَوْ تُعْرِضُوا فَإِنَّ اللَّـهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرًا﴾ سورة النساء: ١٣٥
अर्थ: "ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह के लिए गवाही देते हुए इनसाफ़ पर मज़बूती के साथ जमे रहो, चाहे वह स्वयं तुम्हारे अपने या माँ-बाप और नातेदारों के विरुद्ध ही क्यों न हो। कोई धनवान हो या निर्धन (जिसके विरुद्ध तुम्हें गवाही देनी पड़े) अल्लाह को उनसे (तुमसे कहीं बढ़कर) निकटता का सम्बन्ध है, तो तुम अपनी इच्छा के अनुपालन में न्याय से न हटो, क्योंकि यदि तुम हेर-फेर करोगे या कतराओगे, तो जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर रहेगी", (सूरह अल-निसा: 135)
﴿يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُونُوا قَوَّامِينَ لِلَّـهِ شُهَدَاءَ بِالْقِسْطِ وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَآنُ قَوْمٍ عَلَىٰ أَلَّا تَعْدِلُوا اعْدِلُوا هُوَ أَقْرَبُ لِلتَّقْوَىٰ وَاتَّقُوا اللَّـهَ إِنَّ اللَّـهَ خَبِيرٌ بِمَا تَعْمَلُونَ﴾ سورة المائدة: ٨
अर्थ: "ऐ ईमान लेनेवालो! अल्लाह के लिए खूब उठनेवाले, इनसाफ़ की निगरानी करनेवाले बनो और ऐसा न हो कि किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम इनसाफ़ करना छोड़ दो। इनसाफ़ करो, यही धर्मपरायणता से अधिक निकट है। अल्लाह का डर रखो, निश्चय ही जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को उसकी ख़बर हैं", (सूरह अल-माइदह: ८)
عن عائشة رضي الله عنها أن قريشا أهمهم شأن المرأة المخزومية التي سرقت فقالوا ومن يكلم فيها رسول الله صلى الله عليه وسلم فقالوا ومن يجترئ عليه إلا أسامة بن زيد حب رسول الله صلى الله عليه وسلم فكلمه أسامة فقال رسول الله صلى الله عليه وسلم أتشفع في حد من حدود الله ثم قام فاختطب ثم قال إنما أهلك الذين قبلكم أنهم كانوا إذا سرق فيهم الشريف تركوه وإذا سرق فيهم الضعيف أقاموا عليه الحد وايم الله لو أن فاطمة بنت محمد سرقت لقطعت يدها" متفق عليه.
हज़रत हज़रत आयशह रज़ियल्लाहु अन्हा फरमाती हैं की: कबीला मख़्ज़ूम की एक महिला के विषय ने क़ुरैश खानदान को चिंतित कर दिया, जिस ने चोरी की थी, तो लोगों ने कहा की कौन है जो इस विषय पर (क्षमा दान के लिए) अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से बात करे, तो उन में से कुछ ने कह की उसामह बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हुमा को छोड़ कर इस काम का साहस और कौन कर सकता है?! वही रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के प्रिय हैं, तो उसामह ने बात की, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया की: "क्या तुम अल्लाह की ओर से हदूद (किसी अपराध पर निर्धारित दंड) में से किसी दंड की क्षमा के लिए सिफारिश करना चाहते हो?!" फिर आप मिंबर पर खड़े हुए, और ख़ुत्बह (प्रवचन) दिया, की तुम से पहले कुछ समुदाय इस कारण विनाश हो गए, की जब उन का कोई बड़ा चोरी करता, तो उसे वह छोड़ देते, और जब कोई छोटा अथवा कमज़ोर चोरी करता, तो उस पर निर्धारित दंड लागू करते, अल्लाह की क़सम यदि मुहम्मद (सोयं) की पुत्री फ़ातिमह भी चोरी करे, तो मैं निश्चय ही उस का भी हाथ काटूंगा", (बुखारी. मुस्लिम)
इस्लाम के इस नियम ने राजा और संत्री के बिच का अंतर् मिटा दिया, ग़स्सान का राजा जबलह बिन एहम जो की मदीनह के दो चर्चित अरबी कबीले औस और ख़ज़रज के चाचा खानदान से थे, वह मदीनह आ कर इस्लाम ग्रहण कर के मुसलमान हो गए,हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने भव्य स्वागत किया, और बड़े प्रसन्न हुए, एक बार मक्कह शरीफ में खाना काबा का तवाफ़ करते हुए ग़स्सान के राजा की चादर कबीला फज़ारह के एक बद्वि सहाबी के पैर में आ गई, उस ने मुक्का मर कर उस सहाबी की नाक को ज़ख़्मी कर दिया, वह सहाबी हज़रत उमर के पास फरियाद ले कर पहूंचे, हज़रत उमर ने राजा से पूछा, तो उस ने स्वीकार कर लय, तो हज़रत उमर ने फ़रमाया की आप उस से क्षमा मांग के या किसी प्रकार से उस को प्रसन्न और राज़ी कर लें,अथवा बदले में वह आप को उसी प्रकार नक् में ज़ख्म पहुंचने का अधिकार रखता है, उस ने कहा की कहाँ मैं राजा हूँ, और यह कहाँ का बदु?! हज़रत उमर ने कहा की: जबलह! इस प्रकार के सभी अहंकार और घमन्ड हम बहुत पीछे छोड़ ए हैं, इसी लिए अल्लाह ने हमें प्रगति दी है, तुम्हारे पास दो ही रास्ते हैं, उस से क्षमा मानगो, या फिर बदला देने के लिए तैयार हो जाओ, उस ने कहा की अगर आप का फैसला नहीं बदला, तो मैं इस्लाम को छोड़ वापिस क्रिस्चन बन जाऊंगा, हज़रत उमर ने कहा की तुम्हारी यह बात एक बद्वि को उस का हक़ दिलाने से नहीं रोक सकती, यदि मैं उस का हक़ नहीं दिला स्का, तो मैं अल्लाह को क्या जवाब दूंगा, उस ने आत्मचिंतन के लिए एक रात की मोहलत मांगी, और रात को ही ग़स्सान भाग गया, परन्तु हज़रत उमर को एक राजा के इस्लाम में रहने न रहने से अधिक एक बद्वि सहाबी के अधिकार की चिंता थी, और इसी को उन्हों ने महत्त्व भी दिया, (अल-बिदायह व अल-निहायह)
प्रश्न : इस्लाम में बिदअत (नवाचार) किस को कहते हैं?
पैग़ंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) के समय जो मान्यताएं, और कथनी व करनी इस्लाम के भाग थे, वही इस्लाम है,उस के बाद उतपन्न होने वाली मान्यताएं, कथनी या करनी चाहे कितनी सुन्दर ही क्यों न लगे, वह इस्लाम का भाग कदापि नहीं बन सकते, और इस्लाम में ऐसी ही मान्यता, कथनी, और करनी का नाम "बिदअत" है,
इस्लाम में दुनिया से संबंधित नवाचार (बिदअत) की मान्यता:
यदि यह बिदअत केवल दुनिया से संबंधित है, तो इसमें दो में से एक बातें होगी:
१ - धर्म के किसी नियम क़ानून से न टकराता हो, तो ऐसे नवाचार (बिदअत) को करने न करने में हर वयक्ति को स्वतन्त्रता प्राप्त है,
२ - धर्म के किसी नियम क़ानून से टकराता हो, तो ऐसे नवाचार (बिदअत) को न करने का आदेश है, चाहे वह देखने सुनने करने इत्त्यादि में कितना ही अच्छा क्यों न लगता हो, क्यों की यह धर्म के विपरीत अधर्मी का कार्य है,
عن أنس رضي الله عنه أن رسول الله صلى الله عليه وسلم قال: "أنتم أعلم بأمور دنياكم" رواه مسلم وابن خزيمة وابن حبان في صحيحيهما.
अर्थ: हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु (अल्लाह इन से प्रसन्न हो) से रिवायत है, कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (आप पर अल्लाह की तरफ से सलामती हो) ने फ़रमाया: "तुम्हारी दुनिया के मामलात में तुम ही अधिक बेहतर जानते हो" (इस को इमाम मुस्लिम, इब्न खुजैमह और इब्न हिब्बान ने रिवायत किया है)
इस्लाम में धर्म से संबंधित नवाचार (बिदअत) की मान्यता:
धर्म से संबंधित नवाचार (बिदअत) जिस किसी प्रकार के हों, कदापि स्वीकार्य नहीं हैं, और यह दो प्रकार के हैं:
१ - वह सिरे से नवाचार (बिदअत) हो, जिस का कोई उदाहरण इस्लाम के शिभ काल में न मिलता हो, तो वह कदापि स्वीकार्य नहीं है, कितना ही सुंदर बल्कि पूजा अर्चना ही क्यों न हो,
عن عائشة رضي الله عنها قالت قال رسول الله صلى الله عليه وسلم "من أحدث في أمرنا هذا ما ليس منه فهو رد" أخرجه البخاري ومسلم
अर्थ: हज़रत आयशह (अल्लाह इन से प्रसन्न हो) से रवायत है की अल्लाह के रसूल (आप पर अल्लाह का दरूद व सलाम हो) ने फ़रमाया : जिस व्यक्ति ने हमारे इस धर्म में कोई ऐसा नया कार्य प्रारम्भ किया जो पहले से इस के अंतर्गत न रहा हो, तो वह अस्वीकार्य है, (इस को बुखारी व मुस्लिम ने बयान किया है) और सहीह मुस्लिम की एक रिवायत में है की:
२ - किसी प्रमाणित कार्य में घटा कर, बढ़ा कर, अथवा किसी भी प्रकार से उस में बदलाव ला कर नवाचार (बिदअत) उतपन्न किया जाए, यह भी कितना ही सुंदर बल्कि पूजा अर्चना ही क्यों न हो, कदापि स्वीकार्य नहीं है,
عن جابر بن عبد الله رضي الله عنه ، وفيه أن النبي صلى الله عليه وسلم كان يقول في خطبته: "خير الحديث كتاب الله ، وخير الهدي هدي محمدٍ - صلى الله عليه وسلم - ، وشر الأمور محدثاتها ، وكل بدعةٍ ضلالة" أخرجه مسلم وزاد النسائي بإسنادٍ حسن: "وكل ضلالةٍ في النار"
हज़रत जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है, जिस में है की रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने ख़ुत्बह (जमुआह के प्रवचन) में यह कहा करते थे: " हज़रत जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है, जिस में है की रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने ख़ुत्बह (जमुआह के प्रवचनों) में यह कहा करते थे की: "सब से सच्ची व अच्छी बात अल्लाह की किताब है, और सब से अच्छा मार्गदर्शन मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का मार्गदर्शन है, और सब से बुरी बात उस (मार्गदर्शन) में नवाचार (बिदअत) है, और हर प्रकार की नवाचार (बिदअत) पथ भर्स्टता और गुमराही है", (सहीह मुस्लिम) और नसाई की प्रमाणित रिवायत में (और हर प्रकार की गुमराही नर्क में ले जाने वाली है) के शब्द भी हैं,
बिदअत के प्रभाव:
१ - बिदअत बड़े गुनाहों में से है, जो बिना पर्श्च्ताप और तौबह के क्षमा प्राप्ति नहीं होती,
२ - बिदअत कभी धर्म से निकाल कर बे धर्मी बनाने का कारण बनता है,
३ - कोई भी पुण्य का कार्य स्वीकार्य नहीं होता,
४ - बिदअत का अर्थ यह होता है की जिस बात का ज्ञान अल्लाह व रसूल को नहीं था, वह बिदअत करने वाले ने खोज निकला,
प्रश्न : क्या इस्लाम में न्याय है?
इस्लाम के महत्वपूर्ण भागों में से एक भाग ही न्याय और समानता है, यदि किसी धर्म ने न्याय पर सब से अधिक ज़ोर दिया है, तो वह इस्लाम ही है, बल्कि यह कहना ग़लत न होगा, की इस्लाम की एक बड़ी पहचान ही न्याय और समानता है, इस बारें में अधिक जानकारी इस से पूर्व "इस्लाम में ऊंच नीच भेद भाव" के प्रश्न के उत्तर में गुज़र चूका है, अल्लाह ने फ़रमाया:
﴿إِنَّ اللَّـهَ يَأْمُرُ بِالْعَدْلِ وَالْإِحْسَانِ وَإِيتَاءِ ذِي الْقُرْبَىٰ وَيَنْهَىٰ عَنِ الْفَحْشَاءِ وَالْمُنكَرِ وَالْبَغْيِ يَعِظُكُمْ لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُونَ﴾ سورة النحل: ٩٠
अर्थ: "निश्चय ही अल्लाह न्याय का और भलाई का और नातेदारों को (उनके हक़) देने का आदेश देता है और अश्लीलता, बुराई और सरकशी से रोकता है। वह तुम्हें नसीहत करता है, ताकि तुम ध्यान दो", (सूरह अल-नहल: ९०)
यह भी फ़रमाया की:
﴿إِنَّ اللَّـهَ يَأْمُرُكُمْ أَن تُؤَدُّوا الْأَمَانَاتِ إِلَىٰ أَهْلِهَا وَإِذَا حَكَمْتُم بَيْنَ النَّاسِ أَن تَحْكُمُوا بِالْعَدْلِ إِنَّ اللَّـهَ نِعِمَّا يَعِظُكُم بِهِ إِنَّ اللَّـهَ كَانَ سَمِيعًا بَصِيرًا﴾ سورة النساء: ٥٨
अर्थ: "अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि अमानतों को उनके हक़दारों तक पहुँचा दिया करो। और जब लोगों के बीच फ़ैसला करो,तो न्यायपूर्वक फ़ैसला करो। अल्लाह तुम्हें कितनी अच्छी नसीहत करता है। निस्सदेह, अल्लाह सब कुछ सुनता, देखता है", (सूरह अल-निसा: ५८)
और एक जगह फ़रमाया:
﴿وَإِن طَائِفَتَانِ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ اقْتَتَلُوا فَأَصْلِحُوا بَيْنَهُمَا فَإِن بَغَتْ إِحْدَاهُمَا عَلَى الْأُخْرَىٰ فَقَاتِلُوا الَّتِي تَبْغِي حَتَّىٰ تَفِيءَ إِلَىٰ أَمْرِ اللَّـهِ فَإِن فَاءَتْ فَأَصْلِحُوا بَيْنَهُمَا بِالْعَدْلِ وَأَقْسِطُوا إِنَّ اللَّـهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِينَ﴾ سورة الحجرات: ٩
अर्थ: "यदि मोमिनों में से दो गिरोह आपस में लड़ पड़े तो उनके बीच सुलह करा दो। फिर यदि उनमें से एक गिरोह दूसरे पर ज़्यादती करे, तो जो गिरोह ज़्यादती कर रहा हो उससे लड़ो, यहाँ तक कि वह अल्लाह के आदेश की ओर पलट आए। फिर यदि वह पलट आए तो उनके बीच न्याय के साथ सुलह करा दो, और इनसाफ़ करो। निश्चय ही अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों को पसन्द करता है", (सूरह अल-हुजुरात: ९)
इस से पूर्व हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु और ग़स्सान के राजा जबलह बिन एहम कि घटना गुज़र चुकी है, और एक हदीस में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया:
عن عبد الله بن عمرو رضي الله عنه قال: قال رسول الله صلى الله عليه وسلم: "إنَّ المُقسِطينَ عند اللِه على منابرَ من نورٍ عن يمينِ الرَّحمنِ عَزَّ وجَلَّ، وكِلتَا يديهِ يمينٌ، الذين يَعدِلونَ في حُكمهِم وأهليهِم وما وُلّوا" (صحيح مسلم)
अर्थ: हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा की रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: "निसंदेह न्याय करने वाले अल्लाह के निकट (क़यामत के दिन) सर्वशक्तिमान अल्लाह के दायें ओर नूर (प्रकाश) के मिंबर (मंच) पर हुंगे, - और उस (अल्लाह) के दोनों हाथ दांये हैं - जो लोग अपने फैसलों में न्याय करते हैं, और अपने परिवार के साथ भी न्याय करते हैं, जिन का उन्हें ज़िम्मेदार (अभिभावक) बनाया गया है", (सहीह मुस्लिम)
عن أبي هريرة رضي الله عنه عن النبي صلى الله عليه وسلم قال: "سبعة يظلهم الله في ظله يوم لا ظل إلا ظله ، إمام عادل وشاب نشأ في عبادة الله، ورجل قلبه معلق بالمساجد، ورجلان تحابا في الله اجتمعا عليه وتفرقا عليه، ورجل دعته امرأة ذات منصب وجمال فقال إني أخاف الله، ورجل تصدق بصدقة فأخفاها حتى لا تعلم شماله ما تنفق يمينه، ورجل ذكر الله خالياً ففاضت عيناه" متفق عليه
अर्थ: हजरत अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवायत करते हैं, की आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: "सात प्रकार के लोग हैं, जिन को अल्लाह तआला उस दिन (धुप और गर्मी से बचाने के लिए) अपना (अर्श,सिंहासन की) छाँव प्रदान करेगा, जिस दिन उस की छाँव को छोड़ कर और कोई छाँव नहीं होगी:
- न्याय करने वाला राजा,
- यूवक जो अल्लाह की इबादत में बड़ा हुआ,
- वह वयक्ति, जिसका दिल मस्जिद में लगा हुआ हो,
- वह दो वयक्ति, जिन्हों ने अल्लाह के लिए एकदूसरे से प्रेम किया, अल्लाह ही के लिए मिलते हैं, और अल्लाह ही के लिए जुदा होते हैं,
- वह वयक्ति, जिसे किसी पद व सौंदर्यता वाली महिला ने (कुकर्म के इच्छा से) बुलाया, परन्तु उस ने कहा की मैं (इस पाप कार्य के करने से) अल्लाह से डरता हूँ,
- वह वयक्ति जो दान करता है, तो उस को इतना छुपाते हुए करता है, की उस के बायां हाथ तक को जानकारी नहीं होती, की उसका दायां हाथ क्या दान कर रहा है,
- और वह वयक्ति, जिस ने अकेले में अल्लाह को याद किया, तो उसकी आंखों में आंसू आ गए,
(बुखारी, मुस्लिम)
इस हदीस के अनुसार अल्लाह के सिंहासन की छांव में स्थान पाने वाले सोभाग्यों में से प्रथम स्थान ही न्याय करने वालों के लिए है, जबकि अन्याय करने वालों के लिए दुनिया में और क़यामत के दिन भी कठोर से कठोर दंड का प्रावधान है, जिस का उल्लेख्य पवित्र क़ुरआन व हदीस में आए हैं,
प्रश्न : क्या इस्लाम बल प्रयोग कर के फैलाया गया है?
इस्लाम पर यह भी आरोप लगाया जाता है कि वह बल प्रयोग से फैला है, यदि यह सत्य होता तो इस्लाम में प्रवेश करने वाले वयक्ति इस्लाम के लिए अपनी जान प्राण सब कुछ न त्यागते, परन्तु इस्लाम के प्रति उन के प्रेम को देख कर यह मानना पड़ता है, की उन्हों ने इस्लाम को अपनी इच्छा से चाहते हुए ग्रहण किया था, न की बल प्रयोग से,
यह बातें गुज़र चुकी हैं, की इस्लाम में धर्म को ले कर कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं है, यदि कोई वयक्ति किसी मजबूरी में इस्लाम के सभी कार्य करता है, परन्तु उस का दिल उस को नहीं मंटा है, तो वह मुसलमान नहीं है, तो फिर बल प्रयोग से मुसलमान कैसे बनाया जा सकता है?! और ताक़त से इस्लाम कैसे फैलाया जा सकता है?!
जहाँ तक "जिहाद" की बातें हैं, तो यह भी गुज़र चुकी हैं, जिहाद न तो केवल आक्रमण है, और न ही एकमात्र रक्षा का आधार है,इस संबंध में यहां एक उदाहरण देना चाहूंगा, जिस से स्पष्ट हो जायेगा, की इस्लामी जिहाद कोई क्रूरता या कलंक नहीं, बल्कि मानव हिट में एक रहमत है,
मान लीजिये कि कहीं पर महामारी फैली हुई हो, और वहां चिकित्सा का कोई उपाय न हो, लोग बेतहाषा मृत्यु के मुंह में जा रहे हों, ऐसे में कोई चिकित्स्क टीम आती है, और वह वहां के अधिकारीयों से कहती है, की आप भी हमारे साथ हो जाओ, और आओ हम सब मिल कर यहां फंसे लोगों की सहायता करने लग जाएँ, तो वह अधिकारी उन का साथ देने में अपना असमर्थ जताते हैं, तो टीम कहती है, की ठीक है, आप हमें इस कार्य में सेवा के माध्यम से सहयोग न दो सही, परन्तु तुम अपने कुछ धन राशि से ही हमारा साथ दो, ताकि हम इन्हें बचने में सक्षम हो सकें, तो वह अधिकारी इस को भी मानने से इंकार करते हैं, तो फिर टीम कहती है, की ठीक है, फिर आप के सहयोग के बिना हम से जितना हो सकेगा, उतना तो करेंगे, और लोगों की जान बचाएंगे,
परन्तु वह अधिकारी टीम का रास्ता रोक कर खड़े हो जाते हैं, की बचाव कार्य न तो हम करेंगे, और न तुम को ही करने देंगे, तो टीम कहती है, की तुम जैसे रोड़े को रास्ता से किसी भी क़ीमत पर हटा कर बचाव कार्य तो हम करेंगे, चाहे इस के लिए हमें तुम से युद्ध करना पड़े, यदि हमारे बचाव कार्य के लिए तुम हमारा रास्ता नहीं छोड़ते हो, तो युद्ध के लिए तैयार हो जाओ, यही है इस्लामी जिहाद,
प्रश्न : ईमान क्या है?
ईमान: यह अरबी का शब्द है, डिक्शनरी में इस का अर्थ है: "विश्वास"
परन्तु इस्लामी शरीअत में एक खास प्रकार के विश्वास को "ईमान" कहा जाता है, और वह है:
१ - दिल से पुख्ता विश्वास होना,
२ - ज़ुबान से दिल के विश्वास का इक़रार करे,
३ - अपने कार्यों के माध्यम से दिल के विश्वास और ज़ुबानी इक़रार की पुष्टि करे,
अर्थात: मान लीजिये की कोई वयक्ति मर गया, उस के दिल के विश्वास को अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता, फिर उस का अंतिम संस्कार किस धर्म अनुसार किया जायेगा? हाँ उसकी कथनी और करनी को उस के जानने वाले सभी जानते हैं, कथनी और करनी से ही दिल की मान्यताओं का पता चलता है, इसी लिए अपने विश्वास को अपनी कथनी और करनी से प्रमाणित करना इस्लाम में अनिवार्य है, यदि विश्वास, कथनी और करनी यह तीनों एक समान हैं, तो इसी का नाम "ईमान" है, और जहाँ इन तीनों में से किसी एक में भी अंतर् आ गया, वहां इस्लामी "ईमान" समाप्त हो गया,
किस बात का विश्वास होना "ईमान" कहलाता है?
क्या खुले मैदान में धुप को देख कर दिन होने का विश्वास करना, अँधेरे को देख कर रात होने का विश्वास करना, अग्नि को देख कर गर्मी का विश्वास करना, बोलते हुए को देख कर उस के जीवित होने का विश्वास करना, क्या यह सब "ईमान" है?!
नहीं! यह सब ईमान नहीं कहलायेंगे, क्योंकि मात्र छह (६) बातों पर विश्वास करने को ईमान कहते हैं, और छह के छह सब पर एक साथ विश्वास का होना ज़रूरी है, यदि उन में से किसी एक पर भी संदेह है, तो यह ईमान स्वीकार्य नहीं होगा, वह छह बातें यह हैं:
१ - अल्लाह के संबंध में जो कुछ क़ुरआन व हदीस में है, उस पर पूर्ण विश्वास करना,
२ - अल्लाह की पुस्तकों का विश्वास करना, पवित्र क़ुरआन समेत जितनी भी अल्लाह की पुस्तकें हैं, उन सब पर विश्वास होना,
३ - अल्लाह के सभी दूतों (फरिश्तों) का विश्वास करना, जिन में संवाद के दूत, मृत्यु के दूत इत्यादि भी हैं, उन सब पर विश्वास होना,
४ - अल्लाह के सभी नबियों और रसूलों और उनकी सत्यता पर विश्वास होना,
५ - मृत्यु के बाद जीवन और (क़यामत) न्याय के दिन, स्वर्ग नर्क इत्यादि पर विश्वास होना,
६ - भाग्य और नसीब (मुक़द्दर) अच्छा हो या बुरा, सब अल्लाह की ओर से होने का विश्वास होना,
इन सभी छह बिंदुओं पर दिल के विश्वास के साथ उसी अनुसार कथनी व करनी का होना "ईमान" है, यही छह ईमान के स्तम्भ अथवा ईमान के अरकान कहे जाते हैं, यदि इन में से एक भी स्तम्भ टूट गया, तो ईमान की इमारत गिर जाएगी,
﴿آمَنَ الرَّسُولُ بِمَا أُنزِلَ إِلَيْهِ مِن رَّبِّهِ وَالْمُؤْمِنُونَ كُلٌّ آمَنَ بِاللَّـهِ وَمَلَائِكَتِهِ وَكُتُبِهِ وَرُسُلِهِ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِّن رُّسُلِهِ وَقَالُوا سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا غُفْرَانَكَ رَبَّنَا وَإِلَيْكَ الْمَصِيرُ﴾ سورة البقرة: ٢٨٥
अर्थ: "रसूल उसपर, जो कुछ उसके रब की ओर से उसकी ओर उतरा, ईमान लाया और ईमानवाले भी, प्रत्येक, अल्लाह पर,उसके फ़रिश्तों पर, उसकी किताबों पर और उसके रसूलों पर ईमान लाया। (और उनका कहना यह है,) "हम उसके रसूलों में से किसी को दूसरे रसूलों से अलग नहीं करते।" और उनका कहना है, "हमने सुना और आज्ञाकारी हुए। हमारे रब! हम तेरी क्षमा के इच्छुक है और तेरी ही ओर लौटना है",
इस में एक से चार तक है, और क़यामत या न्याय के दिन के संबंध में अल्लाह ने कहा:
﴿وَإِذَا رَأَوْا آيَةً يَسْتَسْخِرُونَ * وَقَالُوا إِنْ هَـٰذَا إِلَّا سِحْرٌ مُّبِينٌ * أَإِذَا مِتْنَا وَكُنَّا تُرَابًا وَعِظَامًا أَإِنَّا لَمَبْعُوثُونَ * أَوَآبَاؤُنَا الْأَوَّلُونَ * قُلْ نَعَمْ وَأَنتُمْ دَاخِرُونَ﴾ سورة الصافات: 14 - ١٨
अर्थ: "और जब कोई निशानी देखते है तो हँसी उड़ाते है - और कहते है, "यह तो बस एक प्रत्यक्ष जादू है - क्या जब हम मर चुके होंगे और मिट्टी और हड्डियाँ होकर रह जाएँगे, तो क्या फिर हम उठाए जाएँगे? - क्या और हमारे पहले के बाप-दादा भी?" - कह दो, "हाँ! और तुम अपमानित भी होंगे",
﴿وَيَسْتَنبِئُونَكَ أَحَقٌّ هُوَ قُلْ إِي وَرَبِّي إِنَّهُ لَحَقٌّ وَمَا أَنتُم بِمُعْجِزِينَ﴾ سورة يونس: ٥٣
अर्थ: "वे तुम से चाहते है कि उन्हें ख़बर दो कि "क्या वह (क़यामत अथवा न्याय का दिन) वास्तव में सत्य है?" कह दो, "हाँ, मेरे रब की क़सम! वह बिल्कुल सत्य है और तुम क़ाबू से बाहर निकल जानेवाले नहीं हो",
और भाग्य अथवा नसीब के संबंध में अल्लाह ने फ़रमाया:
﴿مَا أَصَابَ مِن مُّصِيبَةٍ فِي الْأَرْضِ وَلَا فِي أَنفُسِكُمْ إِلَّا فِي كِتَابٍ مِّن قَبْلِ أَن نَّبْرَأَهَا إِنَّذَٰلِكَ عَلَى اللَّـهِ يَسِيرٌ * لِّكَيْلَا تَأْسَوْا عَلَىٰ مَا فَاتَكُمْ وَلَا تَفْرَحُوا بِمَا آتَاكُمْ ۗوَاللَّـهُ لَا يُحِبُّ كُلَّ مُخْتَالٍ فَخُورٍ﴾ سورة الحديد: ٢٢ - 23
अर्थ: "जो मुसीबतें भी धरती में आती है और तुम्हारे अपने ऊपर, वह अनिवार्यतः एक किताब में अंकित है, इससे पहले कि हम उसे अस्तित्व में लाएँ - निश्चय ही यह अल्लाह के लिए आसान है, (यह बात तुम्हें इसलिए बता दी गई) ताकि तुम उस चीज़ का अफ़सोस न करो जो तुम पर जाती रहे और न उसपर फूल जाओ जो उसने तुम्हें प्रदान की हो। अल्लाह किसी इतरानेवाले,बड़ाई जतानेवाले को पसन्द नहीं करता",
हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हु की एक हदीस में है, की एक बार नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने साथियों के संग बैठे हुए थे, की इंसानी अवतार में ईश्वरदूत हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम आये, और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से धार्मिक प्रश्न करने लगे, उस में से यह प्रश्न भी था, की:
"قال فأخبرني عن الإيمان قال أن تؤمن بالله وملائكته وكتبه ورسله واليوم الآخر وتؤمن بالقدر خيره وشره" ... متفق عليه.
"कहा(हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम ने): तो मुझे ईमान के संबंध में बताइये? फ़रमाया (नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने): यह की तुम ईमान ले आओ अल्लाह पर, उस के फरिश्तों (दूतों) पर, उस की किताबों (पुस्तकों) पर, उस के पैग़ंबरों पर, और आख़िरत (क़यामत) के दिन पर, और यह के मुक़द्दर पर, अच्छा हो या बुरा, ईमान ले आओ", (बुखारी, मुस्लिम)
प्रश्न : इस्लाम क्या है?
इस्लाम: यह अरबी का शब्द है, जिसका अर्थ है: अमन, शांति, सलामती, अर्थात जो इस के दायरे में अजय, उसे दुनिया में शैतान के पंजे से, बला मुसीबत से, फ़िटने फसाद से अमन शांति और सलामती मिल गई, और आख़िरत में नर्क से, किसी प्रकार के दंड से, और अल्लाह के क्रोध से बच गया,
ईमान के अर्थ में आत्मसमर्पण के भी आते हैं, अर्थात अपने आप को अल्लाह के आदेशानुसार समर्पण करदेना, अपने जीवन को उसी के आदेश पर दाल देना,
शरीअत में वैसे तो इस्लाम और ईमान एक दूसरे के लिए प्रयोग किया जाता है, परन्तु वास्तविक में दोनों के बिच कुछ अंतर है,
- ईमान: अंतर आत्मा की स्थिति और दिल के विश्वास एवं मान्यताओं को कहा जाता है,
- इस्लाम: मान्यताओं और अल्लाह के आदेशानुसार के अनुसार कार्य करने को इस्लाम कहा जाता है,
अर्थात: छुपी हुई ज़ाहिर न होने वाली बातों को ईमान, और स्पष्ट व ज़ाहिरी बातों को इस्लाम कहा जायेगा, मतलब यह की बातिनी अमल को ईमान, और जाहिरि अमल को इस्लाम कहेंगे,
इस्लाम की पांच (५) बुनियादी बातें हैं, इन को इस्लाम के स्तम्भ या इस्लाम के अरकान भी कहते हैं, और वह निम्न प्रकार हैं:
१ - यह साक्षी देना की: वास्तविक में अधिकार के साथ पूज्य प्रभु कोई भी नहीं, परन्तु एक अल्लाह ही इस का योग्य है,
२ - नमाज़ क़ायम करना, प्रति दिन व रात में पांच (५) बार,
३ - ज़कात अदा करना, यदि किसी की धन राशि एक सिमा तक पहुंच जाये, तो कुछ प्रतिशत विशिष्ट धन ग़रीबों में बाँटना, यह दान अनुदान से अलग और इस का अदा करना अनिवार्य है,
४ - प्रति वर्ष रमजान (अरबी का ९वां महीना) में पुरे महीने का रोज़ा (व्रत, उपवास) रखना,
५ - यदि कोई मक्कह शरीफ तक जा सकता है, तो जीवन में एकबार बैतुल्लाह का हज्ज करना,
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया:
عن ابن عمر رضي الله عنه قال: سمعت رسول الله صلى الله عليه وسلم يقول: "بني الإسلام على خمس شهادة أن لا إله إلا الله وأن محمدا رسول الله وإقام الصلاة وإيتاء الزكاة وحج البيت وصوم رمضان" متفق عليه.
अर्थ: "हज़रत इब्न उमर (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) कहते हैं, की मैं ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) से कहते हुए सुना की: "इस्लाम की बुनियाद पांच (५) बातों पर राखी गई है, यह गवाही देना की अल्लाह तआला के अतिरिक्त कोर्इ सच्चा पूज्य नहीं,और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अल्लाह के संदेश्वाहक हैं, और नमाज़ क़ायम करना, और ज़कात अदा करना, और बैतुल्लाह (मक्कह में खाना काबा) का हज्ज करना, और रमजान में व्रत रखना", (बुखारी, मुस्लिम)
प्रश्न : इस्लाम की तोड़ क्या है?
१ - शिर्क
२ - कुफ्र
३ - जादू
४ - धर्म का मज़ाक़
५ - अल्लाह अथवा रसूल की बे अदबी
६ - धर्म को नापसंद करना
७ - धर्म को न सीखना न अम्ल करना
८ - अल्लाह के शत्रुओं से मित्रता
९ - धर्म के विपरीत संविधान को सर्वश्रेष्ठ समझना
१० - अल्लाह के क़ानून के विपरीत क़ानून को अपना हाकिम मानना
लेखक
अब्दुल्लाह अल्काफ़ी अलमुहम्मदी
धार्मिक शिक्षा व आमंत्रण गैर अरब समुदाय विभाग
सहकारी कार्यालय धार्मिक शिक्षा व मार्गदर्शन
प्रान्त तैमा, क्षेत्र तबूक, सऊदी अरब
दिनांक: ०१/ ०४/ १४३९ ह. दिन: बृहस्पतिवार
मुताबिक: १९/ १२/ २०१७ ई.